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मर्यादा

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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मर्यादा से अभिप्राय है व्यवहार की स्वीकार्य सीमा । अतः मर्यादाएँ जुड़ी होती हैं सम्बन्धों से, पद अथवा प्रस्थिति से, सामाजिक व्यवहार से एवं वाणी से । भारतीय परंपरा में मर्यादा के निर्वाह की बड़ी महिमा है । हिंदुओं के आराध्य भगवान राम को मर्यादा पुरुषोत्तम कहकर सम्मानित किया गया है । उन्होंने कुल एवं सम्बन्धों की मर्यादाओं का एवं कालांतर में अपने पद एवं कर्तव्य से जुड़ी मर्यादाओं का अनुपालन किया एवं उन्हें अक्षुण्ण बनाए रखा, इसीलिए वे नरश्रेष्ठ कहलाए, पुरुषों में उत्तम माने गए ।

अब प्रश्न यह है कि मर्यादा की इतनी महिमा क्यों ? क्या कारण है कि मर्यादा का पालन वांछनीय एवं प्रशंसनीय है जबकि इसके विपरीत मर्यादा का उल्लंघन अवांछनीय एवं त्याज्य ? इसके लिए हमें यह बात समझनी होगी कि प्रकृति ने मनुष्यों एवं प्राणियों की ही नहीं, विभिन्न निर्जीव वस्तुओं की भी मर्यादाएँ नियत की हैं । मर्यादा का संबंध है व्यवस्था से । सम्पूर्ण सृष्टि की विभिन्न व्यवस्थाओं का आधार है उन व्यवस्थाओं के विभिन्न अंगों द्वारा अपनी-अपनी मर्यादाओं का पालन । ज़रा सोचिए कि यदि एक नदी अपनी मर्यादा भूलकर अपने बंध तोड़ दे तो क्या होगा, यदि समुद्र अपनी मर्यादा तोड़कर सम्पूर्ण पृथ्वी पर जलप्लावन करने चल पड़े तो क्या होगा, यदि पर्वत अपनी मर्यादा छोड़कर अपने स्थान से इधर-उधर खिसक जाएँ तो क्या होगा, यदि विभिन्न ग्रह अपनी-अपनी कक्षाओं की मर्यादा लांघकर अंतरिक्ष में स्वच्छंद निकल पड़ें तो क्या होगा, यदि वन के हिंस्र पशु अपनी मर्यादा से बाहर निकलकर बस्तियों में आ जाएँ तो क्या होगा, यदि ऋतुचक्र अपनी मर्यादा भूल जाए तथा नियत समय पर ऋतु-परिवर्तन होने रुक जाएँ तो क्या होगा ? इन सभी प्रश्नों का उत्तर एक ही है – विनाश । यदि संसार को विनाश से बचना है और उत्तरजीवी बने रहना है तो यह अपरिहार्य है कि कोई भी वस्तु – चाहे छोटी हो अथवा बड़ी – अपनी मर्यादा को किसी भी स्थिति में न भूले ।

सांसारिक व्यवस्थाओं के आधार हैं समाज, समुदाय एवं संस्कृति एवं इन सभी की मूल इकाई है – व्यक्ति अथवा मनुष्य । चूंकि ये सभी व्यवस्थाएँ अमूर्त हैं जबकि व्यक्ति इनका मूर्त प्रतीक है जिसकी गतिविधियों एवं व्यवहार से ये व्यवस्थाएँ अपना अस्तित्व पाती है एवं उत्तरोत्तर आगे बढ़ती हैं, अतः व्यक्ति के लिए उसका समाज कतिपय मर्यादाएँ नियत करता है । आज के व्यक्तिपरक एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता को सर्वोपरि मानने वाले युग में भी सामाजिक मर्यादाओं का मूल्य कम नहीं हुआ है । व्यक्ति से अपेक्षा की जाती है कि वह समाज द्वारा निर्धारित मर्यादाओं के अनुरूप ही अपने आचरण को ढाले । यदि वह ऐसा नहीं करता तो इसे समाज के अहित में माना जाता है तथा समाज व्यक्ति को दंडित करता है ।

जो बात व्यक्ति पर समाज की मूल इकाई के रूप में लागू है, वही बात उस पर राष्ट्र के नागरिक के रूप में भी लागू है । न केवल व्यक्ति से राष्ट्र के लिखित एवं औपचारिक कानूनों को मानने की अपेक्षा की जाती है तथा उनके उल्लंघन पर उसे कानून द्वारा उक्त अपराध हेतु निर्धारित दंड दिया जाता है, वरन् उससे राष्ट्र का एक आदर्श नागरिक बनने की अलिखित अपेक्षा भी की जाती है । यह भी उसके व्यवहार की मर्यादा का ही अंग है । राष्ट्र के नागरिक से कोई भी ऐसा कार्य जो कि राष्ट्र के अथवा आमजन के हित में न हो, चाहे वह कानूनी रूप से अपराध न भी हो; न करना अपेक्षित होता है ।

व्यक्ति के बाद समाज की अगली वृहत्तर इकाई है परिवार । भारतीय परिवेश में परिवार को अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है एवं ऐसा लाखों बार हो चुका है जब परिवार के हित के लिए अथवा कुल की मर्यादा के लिए व्यक्ति ने आत्म-बलिदान दिया हो अथवा अपने निजी सुख को परिवार पर निछावर कर दिया हो । इसका कारण यह है कि कुल की मर्यादा कुल की सामाजिक प्रतिष्ठा की प्रतीक मानी गई है। भारतीय सामाजिक सरंचना सदा से इस प्रकार की रही है कि यदि परिवार के किसी सदस्य ने कुल की मर्यादा का उल्लंघन किया तो उसका परिणाम परिवार की सामाजिक प्रतिष्ठा को धूमिल करने वाला रहा । पुरुष-प्रधान भारतीय समाज में परिवार अथवा कुटुंब की मर्यादाओं के अनुपालन का अधिक दायित्व नारियों पर डाला गया तथा यही कारण रहा कि वे लंबे समय तक मर्यादाओं के बंधनों में छटपटाती रहीं एवं उन्हें अपनी कामनाओं, सुखों एवं महत्वाकांक्षाओं को छोड़कर मन मारकर जीना पड़ा । पुरुषों के पास सभी अधिकार रहे जबकि नारी को परिवार की धुरी बताकर बिना अधिकार के ही कर्तव्य-पालन एवं मर्यादा-पालन के समस्त दायित्व उस पर लाद दिए गए । परिणामतः पारंपरिक भारतीय समाज में नारियों को पुरुषों की तुलना में बहुत अधिक बलिदान करने पड़े और आज भी करने पड़ते हैं ।

प्रश्न यह है कि मर्यादा-पालन अच्छा है या बुरा । इसे सही माना जाए या ग़लत । इस प्रश्न का उत्तर सरल नहीं है क्योंकि बहुत-सी बातों का औचित्य अथवा अनौचित्य सापेक्ष होता है जिसका निर्णय संदर्भों के आधार पर करना पड़ता है । जैसा कि मैंने पहले कहा कि नदी, समुद्र, पर्वत, आकाशीय पिंड, पशु-पक्षी आदि सभी से अपनी-अपनी मर्यादाओं में रहना अपेक्षित है ताकि सृष्टि का व्यापार अनवरत एवं सुचारु रूप से चल सके । यदि सम्बन्धों की मर्यादाओं का खयाल न रखा जाए तो सम्बन्धों का अस्तित्व ही संकट में पड़ सकता है । यदि पद की गरिमा एवं मर्यादा का खयाल न रखा जाए तो उससे जुड़े दायित्वों को निभाना असंभव की सीमा तक कठिन हो सकता है । यदि वाणी की मर्यादा को बनाकर न रखा जाए तो अनेक अनचाही विपत्तियों का सामना करना पड़ सकता है । ऐसे में मर्यादा-पालन को उचित ही समझा जाना चाहिए ।

आज मनुष्य प्रकृति द्वारा नियत नियमों एवं मर्यादाओं को विस्मृत कर बैठा है जिसके कारण पर्यावरण-क्षय एवं प्राकृतिक आपदाओं की समस्या उत्तरोत्तर भीषण होती जा रही है । मनुष्य को ईश्वर ने बुद्धि देकर सर्वश्रेष्ठ प्राणी के रूप में सृजित किया किन्तु मनुष्य भौतिक लालसाओं एवं अस्थाई सुखों के आकर्षण के चलते अपनी मर्यादाओं को बिसरा रहा है, नैसर्गिक कर्तव्यों की ओर से आँखें मूँदे बैठा है । वह विवश कर रहा है अन्य प्राणियों को उनकी मर्यादाओं को छोड़ने के लिए । वह विवश कर रहा है प्रकृति के विविध रूपों को अपनी मर्यादाओं की सीमा से बाहर निकलने के लिए तथा मानव-जाति का विनाश करने के लिए । वन-सम्पदा के विनाश के चलते मरुस्थल अपनी मर्यादा तोड़कर आगे फैलते जा रहे हैं जबकि उपजाऊ मैदान सिकुड़ते जा रहे हैं, कभी नदियां मार्ग छोड़कर विनाश-लीला करने लगती हैं तो कभी समुद्र सुनामी का अवांछनीय उपहार लेकर आ जाता है, पर्वतों पर बर्फ कम जम रही है तथा ग्लेशियरों का पिघलना यह संकेत दे रहा है कि वर्तमान सभ्यता पर संकट के मेघ मंडरा रहे हैं । साथ ही युवा पीढ़ी के दोषपूर्ण समाजीकरण के कारण समाज के विभिन्न अंग तुच्छ हितों के लिए अपनी मर्यादाएँ तोड़ रहे हैं तथा नई पीढ़ी को क्षणिक आनंद प्रत्येक मर्यादा से ऊपर लगने लगा है । परिणामतः सामाजिक व्यवस्था तथा सांस्कृतिक धरोहर का निरंतर क्षरण हो रहा है ।

निष्कर्ष यही है कि यद्यपि आज के व्यक्तिपरक युग में जबकि निजी स्वतन्त्रता एक जीवन-मूल्य बन चुकी है, मर्यादा के नाम पर किसी भी व्यक्ति पर कुछ थोपा नहीं जाना चाहिए किन्तु जो मर्यादाएँ वृहत् व्यवस्थाओं के अस्तित्व एवं विकास के लिए अपरिहार्य हैं, उनके मूल्य को समझना तथा उनका निष्ठापूर्वक अनुपालन किया जाना अत्यंत आवश्यक है । स्मरण रहे कि जब माता सीता ने लक्ष्मण-रेखा की मर्यादा का उल्लंघन किया तो मात्र उनके ही नहीं, रामायण के अनेक चरित्रों के जीवन में कैसे पीड़ाजनक मोड़ आए । अतः आइए, मर्यादाओं को मात्र बंधन न मानकर सांसारिक जीवन का एक अनिवार्य अंग मानें एवं उनके महत्व को समष्टिगत संदर्भों में समझें ।

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