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निर्णय के औचित्य की कसौटी : उसका परिणाम या कुछ और ?

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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अभी-अभी फ़िल्म ‘कैलेंडर गर्ल्स’ देखी । मन में कई सवाल उठे । फ़िल्म के अंत में कहानी की एक पात्र जो कि पहले कैलेंडर गर्ल थी और बाद में जीवन के विभिन्न परिवर्तनों से गुज़रते हुए और विपरीत परिस्थितियों से जूझते हुए एक सफल पत्रकार बन जाती है, अंत में अपने साथ ही कैलेंडर गर्ल रह चुकी एक लड़की की अवसादपूर्ण परिस्थितियों में हुई मृत्यु के उपरांत टी.वी. पर आयोजित एक परिचर्चा में कहती है – ‘जीवन वस्तुतः उन चुनावों पर निर्भर करता है जो हम उपलब्ध विकल्पों में से करते हैं ।’ फ़िल्म के समापन के उपरांत बहुत देर तक यह बात मेरे मन में गूंजती रही ।

फ़िल्म की उस पात्र ने ठीक ही कहा । जीवन निर्णयों से चलता है । और निर्णय क्या है ? उपलब्ध विकल्पों में से किसी का चयन ही तो । व्यक्ति द्वारा किए गए उस चयन अथवा लिए गए उस निर्णय से ही उसका जीवन या उसके जीवन का कोई एक पक्ष प्रभावित होता है ।  सही निर्णय लेना एक कला है जिसमें कुछ लोग निष्णात होते हैं और कुछ नहीं । मैं दूसरी श्रेणी में आता हूँ । लेकिन कोई भी निर्णय सही है या ग़लत, उचित है या अनुचित; इसकी कसौटी क्या है ?

वह कसौटी है परिणाम । जी हाँ, परिणाम ही वह कसौटी है जिस पर किसी भी निर्णय का औचित्य परखा जाता है । परिणाम सकारात्मक हो, आशानुकूल हो, वांछित प्रदान करने वाला हो तो जो निर्णय लिया गया था, वह उचित समझा जाता है और परिणाम नकारात्मक हो, प्रतिकूल हो, निराशाजनक हो तो जो निर्णय लिया गया था, वह अनुचित माना जाता है । परिणाम अच्छा मिला तो निर्णय सही रहा । परिणाम बुरा मिला तो निर्णय ग़लत साबित हुआ ।

लेकिन निर्णय तो पहले लेना पड़ता है । परिणाम चाहे निर्णय पर आधारित ही हो, उसका पता तो बाद में ही चलता है न ? अपवादों को छोड़कर कोई भी निर्णय लेते समय अर्थात् उपलब्ध विकल्पों में से अपने विवेक के अनुरूप चयन करते समय तो परिणाम की बाबत अनुमान ही लगाया जा सकता है, अपेक्षा ही की जा सकती है कि परिणाम  मनोनुकूल होगा । वस्तुतः ऐसा होगा या नहीं, यह कोई ज्योतिषी जान सके तो जाने; सामान्य व्यक्ति तो नहीं जान सकता । तो फिर सही निर्णय कैसे लिया जाए ?

ज़िंदगी को कई बार एक जुआ कहा जाता है । उसे जुआ इसलिए कहा जाता है क्योंकि जैसे जुए में दांव लगाने वाला खिलाड़ी जीत भी सकता है और हार भी सकता है, वैसे ही जीवन में लिया गया कोई भी निर्णय अभीष्ट दिला भी सकता है और कभी-कभी जो है, उसे गंवा देने की स्थिति में भी  पहुँचा सकता है । और मनुष्य का सक्रिय जीवन उसके द्वारा लिए गए विभिन्न निर्णयों का योग ही तो है । अब अगर यह जुआ भी है तो सांसारिक जीवन जीने वाले व्यक्ति को यह जुआ दिन-प्रतिदिन खेलना तो पड़ता ही है, इससे भागा तो नहीं जा सकता । तो फिर इस जुए में पराजय से कैसे बचें ?

संभवतः श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को गीतोपदेश में दिया गया संदेश ही इस कठिन प्रश्न का सही उत्तर है : ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन’ अर्थात् अधिकार कर्म में ही हो, उसके फल में नहीं । अन्य शब्दों में कर्म करते समय उसके फल या परिणाम की एक परिकल्पना अवश्य करें किन्तु उसके मिलने या न मिलने संबंधी सोचविचार को त्याग दें और केवल यह देखें कि वह कर्म अपने आप में शुभ और सकारात्मक है या नहीं । फल कई कारकों पर निर्भर करता है जो कर्ता के नियंत्रण में नहीं होते । अब जैसा कि मैंने पहले कहा, फल या परिणाम यदि मनोनुकूल न हो तो समझा जाता है निर्णय ग़लत था लेकिन यह तो भौतिक सफलता को ही सब कुछ मानने वाले संसार की सोच है । कर्ता की सोच तो उसके संस्कारों से चलती है । उदात्त संस्कारों से युक्त व्यक्ति अनुचित निर्णय कैसे ले सकता है ? ऐसा व्यक्ति यदि अपने मन में पवित्र भावना रखते हुए किसी उत्तम उद्देश्य के निमित्त कोई निर्णय लेता है तो कालांतर में आने वाला अनपेक्षित विपरीत परिणाम उसके औचित्य पर उंगली कैसे उठा सकता है ?

फल संबंधी सोचविचार मस्तिष्क करता है जबकि कर्म संबंधी निर्णय का बीजारोपण हृदय में होता है । जब हृदय पर विश्वास करके कुछ किया जाए तो फल की प्राप्ति चिंता का विषय नहीं बननी चाहिए । एक बहुत पुराना हिन्दी गीत है – ‘दिल जो कहेगा, मानेंगे, दुनिया में हमारा दिल ही तो है’ । यदि आपके संस्कार उत्तम हैं, जीवन के उच्च मूल्यों में आपका विश्वास है, आप अपना और साथ ही दूसरों का भी हित ही चाहते हैं तो अपने हृदय की पुकार सुनिए और तदनुरूप निर्णय लेकर आगे बढ़ जाइए । आपका दिल अगर साफ़ है तो वो आपको कभी धोखा नहीं देगा । हमेशा आपको सही राह ही दिखाएगा । दिल की सुनेंगे तो अफ़सोस करने की नौबत नहीं आएगी । ऐसे में निर्णय से होने वाले हानिलाभ की चिंता का भार भी अपने मन पर क्यों रखा जाए ? दिलों के सौदे नफ़े-नुकसान पर ग़ौर करके तो नहीं किए जाते । इसीलिए दिल से किए गए फ़ैसले ग़लत भी नहीं होते चाहे उनके नतीज़े मनमाफ़िक न हों । और जब अपने फ़ैसले पर कोई पछतावा नहीं होता तो हार का अहसास भी नहीं सताता ।

सारांश यही कि निर्णय के औचित्य की कसौटी उसके परिणाम को नहीं वरन अपने विवेक को बनाइए जिसके अनुरूप  आप निर्णय ले रहे हैं । परिणाम आपके वश में नहीं लेकिन निर्णय लेते समय आपका विवेक तो आपके वश में होता है । सदविवेक से निर्णय लीजिए और उसके सही होने के विश्वास की ज्योति अपने मन में जलाकर रखिए, परिणाम फिर चाहे जो हो ।

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