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संत-सेवा

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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भारतीय संस्कृति में संतों को अत्यंत उच्च स्थान दिया गया है । संतों का संग, संतों की वाणी का आस्वादन एवं संतों की सेवा सांसारिक प्राणियों हेतु सराहनीय एवं वांछनीय कृत्य माने गए हैं । संत उन्हें कहा जाता है जो वीतरागी हैं, सांसारिक जीवन से परे हैं एवं मानव-मात्र के कल्याण का चिंतन करते हैं । ईसाई धर्म में संत की उपाधि महान कार्य करने वाले लोगों को दी जाती है । मानव-मात्र की सेवा में अपना जीवन होम कर देने वाली मदर टेरेसा को भी अब संत के समकक्ष मान लिया गया है । किन्तु भारतीय परंपरा में संत से अभिप्राय है मन से पवित्र व्यक्ति चाहे उसने संसार त्यागा हो अथवा वह सांसारिक जीवन में रहते हुए भी ईश्वर एवं मानवता के प्रति तन-मन-धन से समर्पित रहता हो । संत कबीर एक ऐसे ही संत थे जो कि सांसारिक जीवन में रहकर भी संत कहलाए क्योंकि उनका सम्पूर्ण व्यक्तित्व पवित्र था और उनके आत्मबल ने उन्हें विभिन्न धर्मों के पाखंडों पर प्रहार करने की शक्ति और साहस प्रदान किया था । यदि प्राचीन संतों की बात करें तो न केवल वैदिक युग के हमारे ऋषि-मुनि गृहस्थ होकर भी धर्म-पालन एवं ईश्वरोपासना करने वाले संत थे वरन् मिथिला-नरेश जनक को तो एक राजा होकर भी संत माना गया क्योंकि वे मन से पवित्र थे और कर्तव्य-पालन में रत रहते हुए भी सांसारिक सुख-भोगों से पूर्णतः निर्लिप्त रहते थे । स्पष्ट है कि संत होने का अभिप्राय किसी विशेष वेश-भूषा में रहने, घर-बार छोड़कर भटकने, अविवाहित रहने एवं भूखे रहकर तप करने से नहीं है वरन् मन से निर्लिप्त होने से है, मोह-माया से मुक्त होकर निर्विकार भाव से अपना कर्तव्य-पालन करने एवं ईश्वर का स्मरण करते हुए उसके उत्तरोत्तर निकट जाने से है । संत वह है जिसे संसार के समस्त व्यापार छूकर निकल जाते हैं किन्तु वह उनके संपर्क में आकर भी उनसे प्रभावित नहीं होता, अपने पथ से विचलित नहीं होता । वह मन से संन्यासी होता है, चाहे प्रकट रूप से वह सामान्य व्यक्ति के रूप में ही रहे ।

आइए, अब समझें कि सेवा क्या है ? सेवा से आशय है किसी की देखभाल या सुश्रूषा । समष्टिगत अर्थ में सेवा से अभिप्राय किसी संगठन अथवा समाज अथवा राष्ट्र अथवा सम्पूर्ण मानवता के प्रति एकनिष्ठ समर्पण से है । किन्तु वह सेवा सेवा नहीं है जो मेवा पाने के लिए की जाए । वही सेवा सच्ची सेवा है जो कि निष्काम भाव से की जाए, जिसके करने के पीछे कुछ प्रतिदान मिलने की भावना उपस्थित न हो । कुछ पाने के लिए यदि सेवा की तो वह सेवा नहीं, लेन-देन से युक्त व्यवसाय हुआ । सेवा वह है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान चीन में महान भारतीय चिकित्सक डॉक्टर कोटणीस ने सैनिकों की की, सेवा वह है जो विश्व की महान परिचारिका फ्लोरेंस नाइटिंगेल ने आजीवन रोगियों की की, सेवा वह है जो राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने भारतीय समाज के दीनदुखियों की बिना किसी सामाजिक भेदभाव के की । सेवा का अर्थ अत्यंत व्यापक है। सिरदर्द से पीड़ित व्यक्ति का सिर दबा देने एवं घायल व्यक्ति की मरहम-पट्टी कर देने से लेकर संसार भर की छोटी-बड़ी सुश्रूषाएँ सेवा के अंतर्गत आती हैं । किसी की अप्रत्यक्ष रूप से इस प्रकार की गई सहायता जो कि दृष्टिगोचर भी न हो, भी सेवा ही कही जाएगी ।

अब प्रश्न यह है कि संत-सेवा किसे कहें ? क्या संतों के आश्रम अथवा निवास-स्थान में उनके साथ रहते हुए उनकी नियमित रूप से की गई सुश्रूषा को संत-सेवा कहा जाए ? आज के समय में तो संतों की सही-सही पहचान करना भी कोई सरल कार्य नहीं क्योंकि भारत देश या यूं कहा जाए कि सम्पूर्ण विश्व ही पाखंडियों से भरा पड़ा है । ऐसे में सेवा करने से पहले पात्र-कुपात्र का विचार कर लेना भी आवश्यक हो गया है । सच्चे संतों को तो सेवा की आवश्यकता भी नहीं होती । वे तो स्वयं ही दूसरों की सेवा करते हैं, किसी से अपनी सेवा करवाते नहीं ।

मेरा विचार यह है कि संत-सेवा से आशय है संतों का संग एवं उनसे सद्गुणों को ग्रहण किया जाना । व्यक्ति का संग ही उसके व्यक्तित्व को सात्विक या तामसिक दिशा में अग्रसर करता है । अतः सत्संग का मानव-जीवन में महत्वपूर्ण स्थान है । संतों या सत्पुरुषों के संग से उनके व्यक्तित्व की सुगंध संग करने वाले मनुष्य के व्यक्तित्व को भी सुवासित कर देती है । उनके सद्गुण उस पर भी प्रभाव डालते हैं । उनसे जुड़े वातावरण एवं उनके आभामंडल से तो पशुपक्षी तक अछूते नहीं रह पाते । ऐसे में मानव की तो बात ही क्या ? उनके साथ रहते हुए यदि उनकी कुछ सेवाटहल करने का अवसर प्राप्त हो जाए तो इसे संग करने वाले का परम सौभाग्य ही कहा जाएगा ।

मेरे निकट माता-पिता एवं गुरु की सेवा करना भी संत-सेवा ही है । सौभाग्य से मुझे अपने वयोवृद्ध संगीत शिक्षक पंडित नारदानन्द शास्त्री जी के सान्निध्य में रहकर उनसे संगीत का ज्ञान प्राप्त करने एवं उसके साथ-साथ उनकी सेवाटहल करने का अवसर मिला । वे एक प्रकार के संत ही थे जिन्होंने अपना जीवन अधिकांश समय एकाकी रहकर वानप्रस्थ करते हुए संगीत-साधना में बिताया तथा बिना किसी लालच के अपना संगीत-ज्ञान नई पीढ़ी को हस्तांतरित किया । संगीत की अनमोल निधि अपने पास होते हुए भी वे निर्धन ही रहे तथा अपनी निर्धनता पर उन्हें कभी संताप नहीं हुआ क्योंकि उनका संगीत उनके लिए ईश्वर था तथा उसकी सतत् साधना ही उनके लिए ईश्वर की आराधना थी । उनके जीवित रहते जितना भी समय मुझे उनकी छोटी-मोटी सुश्रूषा का मिला, वह मेरा अहोभाग्य रहा । उनके निवास-स्थान पर उनसे संगीत का ज्ञान लेने के साथ-साथ उनके घर के छोटे-छोटे काम कर देना, उनकी आवश्यकता की वस्तुएँ ला देना, उन्हें भोजन करा देना एवं अपने आदर से उन्हें यह अनुभूत कराना कि वे एकाकी नहीं हैं, उनकी परवाह करने वाले भी हैं, मेरे लिए एक प्रकार की संत-सेवा ही थी । और इस संत-सेवा से मुझे मिला एक ऐसा संतोष जिसका मूल्य नहीं आँका जा सकता । आज वे इस संसार से विदा हो चुके हैं लेकिन उनके सान्निध्य में बीता समय, उनकी सेवा में बीते पल एवं उनके सत्संग की स्मृतियाँ मेरी वह संपत्ति है जिसे कोई लूट नहीं सकता, कोई मुझसे छीन नहीं सकता । यह है संत-सेवा का मूल्य जिसे भौतिक मापदण्डों से आकलित नहीं किया जा सकता ।

अपने इस अनुभव के आधार पर मैं यह निस्संकोच कह सकता हूँ कि संत-सेवा से आशय है संतों के संग से अपने व्यक्तित्व को निर्मल बनाते हुए सन्मार्ग पर चलना । वस्तुतः मानवता की सेवा में ही संत-सेवा एवं ईश्वर-सेवा दोनों समाहित हैं । जो इस संत-सेवा को पूर्ण निरासक्त भाव से बिना किसी अपेक्षा के अनवरत करता रहेगा, बहुत संभव है कि वह एक दिन स्वयं ही संत बन जाए । मदर टेरेसा ने निःस्वार्थ भाव से आजीवन मानव-मात्र की सेवा की । यह उनकी संत-सेवा थी जिसने एक दिन उन्हीं को संत के स्थान पर प्रतिष्ठित कर दिया । महात्मा गांधी जीवन-भर दीनदुखियों में ही ईश्वर के दर्शन करते रहे और उन्हीं की सेवा करते-करते स्वयं साबरमती के संत कहलाने लगे । अतः संतों को पहचानिए, संत-सेवा कीजिए तथा सत्संग से स्वयं को बिना किसी अपेक्षा के स्वाभाविक रूप से लाभान्वित होने दीजिए । आपके जीवन में आनंद उस द्वार से प्रवेश कर जाएगा जिसके खुले होने का आपको भान भी नहीं होगा ।

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