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साधना नहीं रहीं लेकिन उनका प्रभामंडल सदा रहेगा । कभी कम न होगी आभा उनके नाम, काम और व्यक्तित्व की जिसने जितेन्द्र माथुर सहित करोड़ों सिनेमा-प्रेमियों के हृदय सदा के लिए जीत लिए । एक पुरुष के रूप में मेरे मन को यदि रूपहले परदे की किसी अभिनेत्री ने लुभाया तो केवल साधना ने । किशोरावस्था में फ़िल्म जगत में पदार्पण करने वाली वह सीधी-सादी सिंधी युवती साठ के दशक में स्टाइल और फ़ैशन की प्रतिरूप बन बैठी जिसकी एक झलक मात्र से लाखों दिल धड़क उठते थे । साधना का दौर श्वेत-श्याम सिनेमा से रंगीन सिनेमा में संक्रमण का दौर था । इसलिए उनकी यादगार फ़िल्मों में जहाँ ‘परख’ (1960), ‘हम दोनों’ (1961), ‘प्रेम-पत्र’ (1962), ‘असली-नक़ली (1962), ‘एक मुसाफ़िर एक हसीना’ (1962) और ‘वह कौन थी’ (1964) जैसी श्वेत-श्याम फ़िल्में सम्मिलित हैं वहीं ‘मेरे महबूब’ (1963), ‘आरज़ू’ (1965), ‘वक़्त’ (1965), ‘मेरा साया’ (1966), ‘अनीता’ (1967) और ‘एक फूल दो माली’ (1969) जैसी रंगीन फ़िल्में भी हैं । वे चौड़े माथे वाली एक सादगी-युक्त नायिका से विलक्षण केशसज्जा, रहस्यमयी मुस्कान और सम्पूर्ण देश को मंत्र-मुग्ध कर देने वाले नए चलन के परिधानों में सजी-धजी रमणी में कैसे और कब परिवर्तित हो गईं, संभवतः वे स्वयं भी नहीं जान पाईं । उनके चूड़ीदार पायजामे, सिल्क के कुरते, कानों में बड़ी-बड़ी बालियाँ और साधना कट के नाम से सदा-सदा के लिए मशहूर हो जाने वाले केशविन्यास ने सारे देश में धूम मचा दी थी । लेकिन वह दौर आने से पहले भी साधना ने बिमल राय की ‘परख’ और ‘प्रेम-पत्र’ जैसी फ़िल्मों में अपने सादगी से ओतप्रोत व्यक्तित्व से भारतीय दर्शकों पर अपनी गहरी छाप छोड़ दी थी । देव आनंद की क्लासिक फ़िल्म ‘हम दोनों’ की साधना को भी कौन भुला सकता है ?
साधना के व्यक्तित्व में एक अनजाना-सा रहस्य का तत्व था जिसको आधार बनाकर निष्णात फ़िल्म-दिग्दर्शक राज खोसला ने ‘वह कौन थी’, ‘मेरा साया’ और ‘अनीता’ नामक रहस्यकथाओं की त्रयी रची । जहाँ ‘वह कौन थी’ का पहला ही दृश्य जिसमें भीषण बरसात की रात को कार चला रहे मनोज कुमार को सड़क पर बारिश में भीगती अकेली खड़ी साधना दिखाई देती हैं और फिर वे उन्हें रहस्य में डूबे वार्तालाप के उपरांत अपनी कार में एक कब्रिस्तान तक लिफ़्ट देते हैं, बॉलीवुड में बनने वाली रहस्यपूर्ण फ़िल्मों का सर्वश्रेष्ठ प्रारम्भिक दृश्य माना जा सकता है, वहीं ‘वह कौन थी’ की तर्ज़ पर ही बनी ‘अनीता’ में नायक के समक्ष कभी प्रेमिका तो कभी संसार-त्याग चुकी साध्वी के रूप में प्रकट होने वाली और फिर लुप्त हो जाने वाली रमणी भी अविस्मरणीय ही है । लेकिन साधना के रहस्यमय रूप का सर्वश्रेष्ठ प्रस्तुतीकरण फ़िल्म ‘मेरा साया’ में हुआ जिसमें कहीं वे ‘झुमका गिरा रे’ वाले अवतार में दर्शकों को लुभा गईं तो कहीं ‘नैनों में बदरा छाए’ वाले रूप में हृदयों पर राज कर गईं । उस दौर में ऐसे धूसर रंगों से युक्त भूमिकाओं को स्वीकार करना ही किसी भी नायिका के लिए एक बड़ी चुनौती था क्योंकि पारंपरिक भारतीय दर्शक नायिका के ऐसे रूप को देखने के अभ्यस्त नहीं थे । लेकिन साधना ने इस चुनौती को पूरे आत्मविश्वास के साथ स्वीकार किया और साधा ।
स्वयं सिंधी होकर भी साधना ने एक मुस्लिम युवती की भूमिका में लखनऊ की तहज़ीब को जिस बेमिसाल अंदाज़ से ‘मेरे महबूब’ में परदे पर प्रस्तुत किया है, उस पर देखने वालों के दिलों से ‘वाह’ के अतिरिक्त कुछ निकल ही नहीं सकता । हिज़ाब में छुपा उनका दिलकश हुस्न ही था जिसके लिए फ़िल्म के नायक (राजेन्द्रकुमार) उन्हें अपनी मुहब्बत की कसम देते हुए ख़ुद को अपना दीदार कराने के लिए पुकारते रहे । राजेन्द्रकुमार के साथ साधना ने कश्मीर की पृष्ठभूमि में बनी यादगार प्रेमकथा ‘आरज़ू’ में भी अत्यंत सुंदर अभिनय किया । चिनारों से गिरते पत्तों को देखते हुए उन्होंने लता मंगेशकर की आवाज़ में अपने बेदर्दी बालमा को कुछ ऐसी तड़प के साथ याद किया कि देखने वालों के दिल लरज़ गए । कुछ वर्षों बाद उन्होंने ‘एक फूल दो माली’ में दो पुरुषों के बीच बंटी एक विवाहिता एवं एक माँ की और ‘आप आये बहार आई’ (1971) में दुराचार की शिकार होने के उपरांत अपने प्रेमी से विवाह करने और दुराचारी की संतान को जन्म देने वाली स्त्री की अत्यंत कठिन भूमिकाएं भी कुशलतापूर्वक कीं । उन्होंने ‘गबन’ (1966) जैसी लीक से हटकर बनी फ़िल्म में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी और ‘वक़्त’ जैसी भव्य और बहुसितारा फ़िल्म में भी अपने स्वतंत्र व्यक्तित्व और पहचान पर आँच नहीं आने दी । ‘इंतकाम’ (1969) में प्रतिशोध की अग्नि में झुलसती युवती की भूमिका में उन्होंने अभिनय के नए आयाम छुए ।
प्रेम-दृश्य करने में साधना अत्यंत निपुण थीं । परदे पर अपने नायक के साथ उनका व्यवहार किसी भी कोण से फ़िल्मी या बनावटी नहीं लगता था । चाहे कोई भी फ़िल्म रही हो और उनके समक्ष कोई भी नायक रहा हो, साधना एक सम्पूर्ण समर्पिता प्रेयसी के रूप में ही हँसतीं-बोलतीं-नाचतीं-गातीं दिखाई दीं । यद्यपि सुनील दत्त के साथ परदे पर उनका रसायन सर्वश्रेष्ठ कहा जा सकता है लेकिन अन्य नायकों के साथ काम करते हुए भी उन्होंने सदा ऐसी स्त्री को परदे पर जीवंत किया जिसे प्रत्येक भारतीय पुरुष अपनी प्रेयसी और पत्नी के रूप में पाना चाहता है । उनकी तुलना हॉलीवुड की प्रसिद्ध अभिनेत्री ऑद्रे हेपबर्न से की जाती है किन्तु अपने सर्वांग रूप में वे भारतीय ही थीं ।
नायिका के रूप में अपनी पहली हिन्दी फ़िल्म ‘लव इन शिमला’ (1960) के निर्देशक आर.के. नैयर से उन्होंने हृदय की गहराई से प्रेम किया और इसे उनका दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि नैयर के साथ अपने वैवाहिक जीवन में उन्हें संतान-सुख नहीं मिला । दैहिक समस्याओं के कारण उनका करियर वस्तुतः ‘गीता मेरा नाम’ (1974) के साथ ही समाप्त हो गया था जिसका निर्देशन भी उन्होंने ही किया था लेकिन उनकी कुछ फ़िल्में बाद में भी प्रदर्शित हुईं । भारतीय दर्शकों के दिलों में बनी हुई अपनी छवि को अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए उन्होंने एक बार अवकाश लेने के बाद कभी भी फ़िल्मों में काम नहीं किया और सार्वजनिक जीवन से भी अपने आपको दूर कर लिया । इसीलिए साठ के दशक में उद्भूत उनका प्रभामंडल तथा उनके व्यक्तित्व पर पड़ा रहस्य का आवरण सदा जस-का-तस ही रहा । 1995 में आर.के. नैयर के निधन के उपरांत वैधव्य के दो दशक उन्होंने बड़ी आर्थिक और व्यावहारिक कठिनाइयों के साथ बिताए । अपने कोई पास थे नहीं और बेगाने उन्हें कष्ट देने और प्रताड़ित करने में कोई कसर नहीं छोड़ते थे । ग्लैमर की चमक-दमक समाप्त हो जाने के पश्चात किसी कलाकार का जीवन कैसा एकाकी और कठिन हो सकता है, यह कोई जानना चाहे तो साधना को उनके जीवन के अंतिम वर्षों में हुए कटु अनुभवों से जान सकता है ।
साधना अपनी नश्वर देह को छोड़कर जा चुकी हैं लेकिन अपनी फ़िल्मों के माध्यम से वे सदा जीवित रहेंगी । साधना को उनकी कला-साधना ने अमरत्व प्रदान कर दिया है । अब वे स्मृति-शेष हैं लेकिन उनका प्रभामंडल कभी धूमिल नहीं पड़ेगा । भारतीय रजतपट के इतिहास में वे अद्वितीय हैं और सदा रहेंगी । ईश्वर उनकी आत्मा को शांति प्रदान करे । इस असाधारण कलाकार को मेरी हार्दिक श्रद्धांजलि ।
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