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प्रणब दा की यादें या अपनी सियासी ग़लतियों की लीपापोती ?

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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प्रणब मुखर्जी ने अपनी पुस्तक ‘मेमोअर्स’ (संस्मरण) को कई खंडों में लिखा है जिसकी विषय-वस्तु को वे अपने राजनीतिक जीवन की स्मृतियां बता रहे हैं । अब भारतीय गणतन्त्र का प्रमुख कोई पुस्तक लिखेगा तो उसमें उद्धृत प्रत्येक बात को वेदवाक्य ही समझा जाएगा । स्वाभाविक है कि ऐसी पुस्तक हाथोंहाथ ली जाएगी, ख़ूब बिकेगी, ख़ूब पढ़ी जाएगी, ख़ूब चर्चित होगी और महामहिम की ख़ूब वाहवाही होगी । लेकिन अपनी स्मृतियों के नाम से ऐसी पुस्तकें लिखते समय भारतीय राजनेता (और नौकरशाह भी) यह विस्मृत कर जाते हैं कि जनता-जनार्दन की स्मृति इतनी दुर्बल भी नहीं होती जितनी कि वे समझ लेते हैं । वे यह भूल जाते हैं कि झूठ के पाँव नहीं होते और उसका पकड़ा जाना सुनिश्चित होता है विशेष रूप से तब जब उसका साक्षात्कार किसी ऐसे व्यक्ति से हो जिसने भारतीय राजनीति के किसी कालखंड के विभिन्न उतार-चढ़ावों को निकटता से देखा हो । प्रणब दा यदि यह समझते हैं कि अपने कथित संस्मरणों में उन्होंने असत्य की जो चतुराईपूर्ण मिलावट की है, वह पकड़ी नहीं जाएगी तो यह उनका भ्रम ही है ।

प्रणब मुखर्जी ने अपनी तथाकथित स्मृतियों में जो दावा किया है कि उनकी महत्वाकांक्षा कभी भारत का प्रधानमंत्री बनने की नहीं थी, उससे बड़ा असत्य और कुछ नहीं । दादा धरती और जनसामान्य से जुड़े हुए नेता चाहे कभी नहीं रहे लेकिन अपनी प्रशासनिक दक्षता, कार्यकुशलता और मृदु व्यवहार के चलते वे शीघ्र ही श्रीमती इन्दिरा गांधी के विश्वासपात्र बन बैठे थे जिससे अल्पायु में ही न केवल उनको वित्त और रक्षा जैसे अतिमहत्वपूर्ण मंत्रालयों के प्रमुख बनने का अवसर मिल गया था  बल्कि संजय गांधी के असामयिक देहावसान के उपरांत उनका राजनीतिक कद इतनी शीघ्रता से बढ़ा था कि वे केंद्रीय मंत्रिपरिषद में दूसरे नंबर पर समझे जाने लगे थे । इस आनन-फानन तरक्की ने ही दादा की राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पर लगा दिए और ३१ अक्तूबर, १९८४ को इन्दिरा जी के स्तब्धकारी निधन के साथ ही उन्हें प्रधानमंत्री का पद अपनी ओर आता दिखाई देने लगा । अपनी इस अधीरता में दादा भूल बैठे कि चाय की प्याली और पीने वाले के होठों के मध्य का अंतर लगता छोटा है लेकिन होता बहुत बड़ा है ।

तत्कालीन राष्ट्राध्यक्ष ज्ञानी ज़ैलसिंह ने दिवंगत इन्दिरा जी के लिए अपनी निष्ठा को सर्वोपरि रखते हुए उनके पुत्र राजीव गांधी को उसी दिन प्रधानमंत्री पद की शपथ दिला दी । दादा को बुरा तो बहुत लगा लेकिन चूंकि अनुभवहीन और शोकमग्न राजीव गांधी ने इन्दिरा जी की मंत्रिपरिषद को ज्यों-का-त्यों रखा, अतः दादा वित्त मंत्री के पद पर बने रहे । शायद इसीलिए उस समय उन्होंने अपना विरोध दबे-छुपे रूप में ही ज़ाहिर किया और आम चुनावों के होने की प्रतीक्षा करने लगे जिनकी घोषणा बहुत जल्दी कर दी गई थी । अगर चुनावों में कांग्रेस दल को मामूली बहुमत ही मिलता तो दादा की गोट शायद चल जाती लेकिन इन्दिरा जी के निधन से उमड़ी सहानुभूति लहर पर सवार होकर कांग्रेस दल ने चार सौ से अधिक सीटें जीतकर ऐतिहासिक रूप से प्रचंड बहुमत प्राप्त कर लिया तो सरकार और दल में राजीव गांधी का नेतृत्व निर्विवाद हो गया । यहीं दादा ने वह भूल कर डाली जो उन्हें नहीं करनी चाहिए थी ।

उन्होंने राजीव गांधी के कांग्रेस संसदीय दल का नेता चुने जाने और तदनुरूप प्रधानमंत्री बनने में अड़चन डालने की कोशिश की और इस तरह उनकी महत्वाकांक्षा जो छुपी ही रहती तो बेहतर होता, राजीव गांधी और उनके समर्थकों पर अच्छी तरह उजागर हो गई । दादा यह भूल गए कि कांग्रेसी उसी नेता का नेतृत्व स्वीकार करते हैं जिस पर उन्हें चुनाव जिता सकने का विश्वास हो । दादा का हाल तो यह था कि वे किसी और को तो क्या जिताते, स्वयं अपना चुनाव जीतने की कूव्वत नहीं रखते थे । इसीलिए वे सदा राज्य सभा के माध्यम से संसद में पहुँचते थे । ऐसे में तीन चौथाई बहुमत के साथ कांग्रेस को लोक सभा चुनाव जिताकर लाने  वाले और इन्दिरा जी के पुत्र का दर्ज़ा रखने वाले राजीव गांधी के सामने उनकी कौन सुनता ? उनका विरोध नक्कारख़ाने में तूती की आवाज़ ही साबित हुआ लेकिन इस विरोध ने उन पर राजीव विरोधी होने की मोहर लगा दी जो उनके लिए घातक साबित हुई ।

राजीव गांधी पहले से ही बंगाल से आने वाले और एक दूसरे के कट्टर विरोधी दो दिग्गज नेताओं – प्रणब मुखर्जी और ए.बी.ए. गनी खां चौधरी को पसंद नहीं करते थे । अतः चुनाव के उपरांत नई सरकार का गठन करते समय उन्होंने इन दोनों को ही मंत्रिमंडल से निकाल बाहर किया । प्रणब दा की तुलना में गनी खां चौधरी की स्थिति बेहतर रही क्योंकि न केवल वे एक धरातल से जुड़े हुए नेता थे, बल्कि वे प्रणब दा से अधिक परिपक्व भी सिद्ध हुए और चुप्पी साधकर अपने समय के परिवर्तित होने की प्रतीक्षा करने लगे जो अपनी अधीरता में दादा नहीं कर सके । वैसे भी इस चुनाव में मार्क्सवादियों के गढ़ बन चुके बंगाल में भावी राजनीतिक परिवर्तन का एक छोटा-सा अंकुर फूट चुका था जो समय आने पर एक ऊंचा और शक्तिशाली वृक्ष बना । वह अंकुर था एक विद्रोही तेवरों वाली उनतीस वर्षीया युवती ममता बनर्जी जिसने सोमनाथ चटर्जी जैसे मार्क्सवादी दिग्गज को पटखनी देकर अपने राजनीतिक करियर का वैभवशाली आरंभ किया था और इस तरह पूत के पाँव पालने में ही दिखा दिए थे । लेकिन अपनी निजी महत्वाकांक्षा के आगे कुछ भी देख पाने में असमर्थ दादा परिवर्तन की बयारों को पहचान नहीं सके । गनी खां चौधरी तो कुछ समय बाद राजीव गांधी के मंत्रिमंडल में आ भी गए लेकिन प्रणब मुखर्जी ने सावधानी बरतना तो दूर, राजीव गांधी का सीधे-सीधे विरोध करके अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली । अपनी तथाकथित यादों में वे यह सरासर झूठ कहते हैं कि राजीव गांधी ने उन्हें ग़लत समझा । सच तो यही है कि उनके मुखर राजीव विरोध के चलते उस समय उन्हें कोई भी ग़लत नहीं समझ रहा था । शायद वे ख़ुद ही अपने आप को ठीक से नहीं समझ पा रहे थे । उनकी तब की कारगुज़ारियों का कच्चा चिट्ठा आर.के. करंजिया ने ‘ब्लिट्ज़’ समाचार-पत्र में छापा था और बाद में लोकप्रिय राजनीतिक पत्रिका ‘माया’ ने भी इस बाबत बहुत कुछ जनता के सामने रखा था ।

जब प्रणब मुखर्जी का खुला विरोध राजीव गांधी के लिए असहनीय हो गया तो मई १९८६ में उन्होंने अपनी ताक़त दिखाते हुए एक झटके से दादा को पार्टी से निष्कासित कर दिया । अपनी स्मृतियों में न जाने किसे मूर्ख समझते हुए दादा फ़रमा रहे हैं कि उन्होंने कांग्रेस पार्टी छोड़ दी थी जबकि सच्चाई यह है कि उन्हें अपमानित करके निकाल बाहर किया गया था । उनके निष्कासन के साथ ही अन्य राजीव विरोधियों के लिए चेतावनी स्वरूप तीन अन्य वरिष्ठ नेताओं की सदस्यता भी निलंबित कर दी गई थी । ये नेता थे – श्रीपति मिश्र (उत्तर प्रदेश के भूतपूर्व मुख्यमंत्री), अनंत प्रसाद शर्मा और प्रकाश मेहरोत्रा । कुछ समय पहले ही गुजरात के पूर्व मुख्यमंत्री माधवसिंह सोलंकी और कर्नाटक के पूर्व मुख्यमंत्री आर. गुंडूराव की भी इसी तरह पार्टी से छुट्टी कर दी गई थे लेकिन प्रणब मुखर्जी न जाने कैसे स्वयं को निरापद माने हुए थे और अपने वक्तव्यों से राजीव गांधी को कड़ी कार्रवाई के लिए उकसा रहे थे । श्रीपति मिश्र और अनंत प्रसाद शर्मा ने माफ़ीनामा देकर कुछ वक़्त बीतने के बाद अपने निलंबन रद्द करवा लिए । लेकिन प्रणब दा ख़याली पुलाव पकाते हुए अपने आपको धोखा देने में लगे रहे । उन्हें यह भी नज़र नहीं आया कि उनके निष्कासन से पार्टी की चाय के प्याले में कोई तूफ़ान नहीं आया था और सब कुछ वैसे ही चलता रहा था, जैसे कुछ भी न हुआ हो ।

अपनी ज़मीनी हक़ीक़त से बेख़बर प्रणब मुखर्जी ने शीघ्र ही ‘राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस’ नामक एक तथाकथित राष्ट्रीय स्तर के राजनीतिक दल की घोषणा कर दी जिसके अध्यक्ष वे स्वयं बन बैठे, उपाध्यक्ष गूंडूराव को बना दिया और कुछ अन्य पिटे-पिटाए भूतपूर्व कांग्रेसियों को लेकर उसकी राष्ट्रीय कार्यकारिणी भी बना डाली । कार्यकारिणी की पहली बैठक में उन्होंने दावा किया कि उनकी पार्टी को सौ सांसदों का समर्थन प्राप्त था लेकिन उस खोखले दावे की सच्चाई किसी से भी छुपी नहीं थी । बहुत जल्द ही दादा अर्श से फ़र्श पर आ गए जब उनकी आँखें खुलीं और उन्हें दिखाई दिया कि कांग्रेस पार्टी से बाहर उनकी सियासी हस्ती सिफ़र थी । उनके हवाई राजनीतिक दल के पास न कोई कार्यक्रम था, न जनाधार और न उसे चलाने के लिए आवश्यक संसाधन । तब तक की अपनी ज़िंदगी में एक भी लोक सभा या विधान सभा चुनाव न जीतने वाले दादा को अब आटे-दाल का भाव पता चल गया और उन्हें सूझ गया कि राजनीतिक दल को बनाना और चलाना कोई बाएं हाथ का खेल नहीं है । अपने राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी भूल देर से ही सही, उनकी समझ में आई और उन्होंने आईना देखकर अपनी असलियत को पहचाना ।

अब थूककर चाटने की नौबत आ गई क्योंकि राजनीति करनी थी और अपना अस्तित्व बचाकर रखना था तो वापस कांग्रेस में घुसने के अलावा कोई चारा नहीं था । अपने कागज़ी राजनीतिक दल को औपचारिक रूप से भंग करने की घोषणा करके दादा आख़िर जैसे-तैसे (संभवतः कांग्रेस आलाकमान उर्फ़ राजीव गांधी से अनुनय-विनय करके) ‘लौट के बुद्धू घर को आए’ के अंदाज़ में कांग्रेस में वापस आ ही गए । जब दादा को निकाला गया था, तब कांग्रेस दल और केंद्रीय सरकार दोनों में ही माखनलाल फ़ोतेदार, कैप्टन सतीश शर्मा, अरुण सिंह, अरुण नेहरू, बघेल ठाकुर यानी अर्जुन सिंह और राजा मांडा यानी विश्वनाथ प्रताप सिंह जैसों का बोलबाला था लेकिन उनके लौटने तक दिल्ली की यमुना में बहुत पानी बह चुका था । विश्वनाथ प्रताप सिंह और अरुण नेहरू जैसे लोग बाहर हो चुके थे और भ्रष्टाचार के आरोपों से घिरी सरकार बदनाम हो रही थी । लेकिन दादा कांग्रेस दल में वापस ही आ सके, उन्हें सरकार या संगठन में कोई स्थान नहीं दिया गया क्योंकि राजीव गांधी अब सरलता से उन पर विश्वास नहीं कर सकते थे । आने वाले वक़्त में दादा को बहुत जल्दी पता चल गया कि उनकी अधीरता उन्हें कितनी महंगी पड़ी थी जब १९९१ में लोक सभा चुनाव के दौरान ही राजीव गांधी का आकस्मिक निधन हो गया और कांग्रेस पार्टी के चुनाव जीतने के बाद प्रधानमंत्री की ख़ाली कुर्सी के कई दावेदार सामने आ गए । इस कुर्सी के तगड़े दावेदार नारायण दत्त तिवारी को करारा झटका अपनी लोक सभा सीट हारने से लग गया था और ऐसे में दादा का नंबर लग सकता था अगरचे उन्होंने कुछ साल धैर्य रखा होता । लेकिन चूंकि उनका पार्टी विरोधी इतिहास अधिक पुराना नहीं था, इसीलिए वे उस सुनहरे मौके को चूक गए और राजनीति से लगभग संन्यास ले चुके पी.वी. नरसिंह राव के भाग्य से जैसे छींका टूटा ।

लेकिन अब प्रणब दा ने ज़िंदगी का वो बेशकीमती सबक मानो रट-रटकर अपने ज़हन में बैठाया जिसे वे गुज़रे हुए कल में बिसरा बैठे थे । आलोक श्रीवास्तव जी की एक ग़ज़ल के बोल हैं – ‘ज़रा पाने की चाहत में बहुत कुछ छूट जाता है, न जाने सब्र का धागा कहाँ पर टूट जाता है’ । प्रणब मुखर्जी ने अतीत में अपने सब्र के धागे के टूट जाने से बहुत कुछ खो दिया था लेकिन अब उन्होंने अपने सब्र के धागे को टूटने नहीं दिया । जो भी ज़िम्मेदारी मिली, उसे उन्होंने पूरी ईमानदारी और ख़ामोशी से बिना कुछ पाने की आस किए निभाया और जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझकर राज़ी रहे । वे योजना आयोग के उपाध्यक्ष बने और फिर मंत्री । नरसिंह राव के विरोध में होने वाली किसी भी गतिविधि का वे अंग नहीं बने और दल के नेतृत्व के प्रति अपनी अटूट निष्ठा का सतत प्रदर्शन करते रहे । १९९६ में लोक सभा चुनाव हारने के बाद कांग्रेस पार्टी आठ साल तक सत्ता से बाहर रही जो दादा के लिए भी फिर से राजनीतिक बनवास ही था । लेकिन जब कांग्रेस दल को २००४ में पुनः सरकार बनाने का अवसर मिला और सोनिया गांधी ने प्रधानमंत्री का पद ठुकराने का निश्चय किया तो उन्होंने दादा के अतीत को ध्यान में रखते हुए उन्हें इस पद के लिए उपयुक्त नहीं माना । पुराने पाप सरलता से पीछा नहीं छोड़ते ।

इस तरह प्रधानमंत्री पद के लिए प्रणब मुखर्जी की बस एक बार फिर छूट गई और समय का फेर देखिए कि उन्हें उन्हीं मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्रित्व में मंत्री बनकर रहना पड़ा जिन्हें उन्होने ही १९८२ में भारतीय रिज़र्व बैंक का गवर्नर नियुक्त किया था और जिनके कि वे भारत के वित्त मंत्री के रूप में बॉस हुआ करते थे । यानी बॉस अब मातहत बन गया था और मातहत बॉस । प्रणब मुखर्जी ने यह कड़वा घूंट भी ख़ामोशी से पिया क्योंकि अब वे धैर्य धारण करना सीख चुके थे । वैसे अपने जीवन में पहले कभी नगरपालिका तक का चुनाव न जीतने वाले दादा के लिए २००४ में लोक सभा का चुनाव जीतना ही एक बहुत बड़ी सांत्वना थी ।

बहरहाल दादा पूरी निष्ठा, लगन और सबसे बढ़कर धैर्य के साथ अपने कर्तव्यों का पालन करते रहे और अंततः उनका धैर्य रंग लाया जब वे भारत के राष्ट्राध्यक्ष पद के लिए चुन लिए गए और इस तरह एक बार पुनः वे प्रोटोकॉल में मनमोहन सिंह से आगे निकल गए । प्रधानमंत्री का शक्तिशाली पद तो उनके भाग्य में नहीं था लेकिन वे राष्ट्र के प्रथम नागरिक, संवैधानिक प्रमुख और सर्वोच्च सेनापति तो बने । उनकी यह उपलब्धि प्रधानमंत्री बनने की उपलब्धि से किसी भी तरह कम नहीं आँकी जा सकती लेकिन इसके लिए उन्हें दो दशक से भी अधिक दीर्घावधि तक धैर्यपूर्ण प्रतीक्षा करनी पड़ी । मैं तो  राष्ट्राध्यक्ष बनने से भी बड़ी उनकी उपलब्धि उनके द्वारा इस गुण को अपने भीतर विकसित कर लिए जाने को ही मानता हूँ । गोस्वामी तुलसीदास तो सैकड़ों वर्ष पूर्व ही रामचरितमानस में कह गए हैं – ‘धीरज धर्म मित्र अरु नारी, आपद काल परखिअहिं चारी’ । ज्ञातव्य है कि तुलसीदास जी ने जिन चार बातों को विपत्ति के समय परखने के लिए कहा है, उन चारों में सर्वप्रथम स्थान धीरज का ही आता है । अतः धीरज ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण है जिसे किसी भी स्थिति में साथ नहीं छोड़ने देना चाहिए । प्रणब मुखर्जी की राजनीतिक यात्रा रूपी कथा से यही सीख मिलती है ।

अब अपनी किताब में यादों के बहाने प्रणब मुखर्जी अपनी सियासी ग़लतियों की लीपापोती कर रहे हैं तो इससे यही सिद्ध होता है कि अपनी भूलों को सार्वजनिक रूप से स्वीकारना सहज नहीं है । अपने गरेबान में झाँकने से हर किसी को परहेज होता है फिर चाहे वह कोई भी हो । आज राष्ट्र प्रमुख के रूप में लिखी गई उनकी किताब निश्चय ही बेस्टसेलर हो जाएगी जिसे कि पंद्रह साल पहले आने पर शायद कोई हाथ भी नहीं लगाता । राष्ट्र के प्रथम नागरिक द्वारा कही गई किसी भी बात पर प्रश्नवाचक चिह्न लगाकर विवाद उत्पन्न करने का जोखिम भी फ़िलहाल कोई नहीं लेगा । लेकिन इतना दीर्घ और विविधतापूर्ण अनुभव मिल जाने के उपरांत अपने (राजनीतिक और वास्तविक) जीवन की साँझ में प्रणब दा को इतना तो समझ ही लेना चाहिए कि सच्चाई छुप नहीं सकती बनावट के उसूलों से और खुशबू आ नहीं सकती कभी कागज़ के फूलों से ।

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