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सुब्रत रॉय : सुख के सब साथी, दुख में न कोय

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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दिलीप कुमार और सायरा बानू अभिनीत पुरानी हिन्दी फ़िल्म ‘गोपी’ (1970) का एक अमर भक्ति गीत है – ‘सुख के सब साथी, दुख में न कोय’ जिसे राजेन्द्र कृष्ण ने लिखा था, कल्याणजी आनंदजी ने संगीतबद्ध किया था और मोहम्मद रफ़ी ने गाया था । आज भी इस गीत को चाहे सुना जाए या फ़िल्म के दृश्य में देखा जाए, यह मन को वीतराग और ईश्वर-भक्ति की भावनाओं से भर देता है । इस भक्ति-गीत पर रफ़ी साहब का स्वर और दिलीप साहब का अभिनय सुनने और देखने वालों के दिल जीतने में आज भी उतना ही सक्षम है जितना कि साढ़े चार दशक पहले था ।

यह गीत इस शाश्वत तथ्य को रेखांकित करता है कि संसार में कोई अपना नहीं है, केवल प्रभु का नाम ही अपना है, उसकी कृपा ही अपनी है । बाकी सब रिश्ते-नाते केवल स्वार्थ पर आधारित हैं । अपनेपन का दावा करने वाले सभी लोग केवल सुख के ही साथी होते हैं, दुख में सब दूर हो जाते हैं और उस समय मनुष्य स्वयं आपको नितांत एकाकी पाता है । इसलिए ऐसे स्वार्थाधारित सम्बन्धों के जाल में न फंसकर मनुष्य को ईश्वरोपासना तथा सत्कर्मों में ही मन लगाना चाहिए ।

सहारा उद्योग समूह के मुखिया सुब्रत रॉय ने यह गीत अवश्य सुना होगा क्योंकि उनकी धर्मपत्नी स्वप्ना रॉय स्वयं गायिका हैं, अतः उनके कारण उनके पतिदेव यानी कि सुब्रत रॉय ने भी संगीत में सदा ही रुचि रखी होगी । बहरहाल सुब्रत रॉय के मन में शाश्वत जीवन दर्शन को सरल शब्दों में बताने वाला यह गीत पिछले दो वर्षों में अनगिनत बार गूंजा होगा, ऐसा मेरा अनुमान है । 28 फ़रवरी, 2016  को उनकी गिरफ़्तारी को पूरे दो साल हो जाएंगे और 04 मार्च, 2016 को उनकी तिहाड़ जेल की रिहाइश के दो साल पूरे हो चुके होंगे । राजसी ठाठ से जीने वाले, सार्वजनिक जीवन में अपनी लार्जर दैन लाइफ़ छवि गढ़ने वाले, ऊंचे और असरदार लोगों की सोहबत का लुत्फ़ उठाने वाले या यूँ कहिए कि उन्हें अपनी सोहबत का लुत्फ़ उठाने का मौका देने वाले और अपने आपको निर्धनों की सहायता करने हेतु धरती पर आई किसी पुण्यात्मा के रूप में देखने वाले सुब्रत रॉय ने 28 फ़रवरी, 2014 से पहले कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि उनकी ज़िन्दगी में ऐसा वक़्त भी आएगा ।

कुछ वर्ष पूर्व सुब्रत रॉय के फ़र्श से अर्श पर जा पहुँचने की गाथा जितनी रोमांचक लगती थी, अब उनके अर्श से फ़र्श पर धड़ाम से आ गिरने की गाथा उससे भी कहीं अधिक रोमांचक लगती है । उनका पतन उनके उत्थान से भी अधिक अविश्वसनीय है । किसी परीकथा की भांति व्यवसाय जगत में दिन दूनी रात चौगुनी प्रगति करते-करते वे देखते-ही-देखते पृथ्वी से आकाश पर जा पहुँचे लेकिन भाग्य के एक ही थपेड़े ने उन्हें आकाश से सीधा रसातल में धकेल दिया – उस रसातल में जिससे निकलने की उनकी कोई जुगत कारगर नहीं हो रही है । कैसे हुआ ऐसा ?

सुब्रत रॉय का जन्म बिहार के अररिया ज़िले में निवास करने वाले एक सामान्य बंगाली परिवार में हुआ । गोरखपुर से मैकेनिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा करने के उपरांत अति-महत्वाकांक्षी सुब्रत रॉय ने 1978 में केवल तीस वर्ष की आयु में अपना व्यवसाय आरंभ किया और एक लेम्ब्रेटा स्कूटर लेकर लोगों को नमकीन बेचते हुए गलियों और सड़कों की ख़ाक छानने निकल पड़े । शीघ्र ही गोरखपुर में ‘सहारा इंडिया परिवार’ नाम से एक व्यापारिक संस्था की स्थापना करके उन्होंने मुख्यतः विनियोग तथा वित्त-पोषण का क्षेत्र अपने व्यापार के लिए चुना । जैसे-जैसे उनकी संस्था पैसा कमाती गई, वे रीयल एस्टेट, विमानन, आतिथ्य (होटल), चिकित्सा, सूचना प्रौद्योगिकी, पर्यटन, जीवन बीमा, मनोरंजन, मीडिया और खेल जैसे क्षेत्रों में भी अपने पैर फैलाते चले गए । सुब्रत रॉय ने अपने व्यवसाय के लिए घोषित रूप से ‘सामूहिक भौतिकवाद’ का दर्शन अपनाया जिसका उनके शब्दों में अर्थ है – ‘सामूहिक देखरेख में सामूहिक उन्नति’ । उनके व्यवसायों के लिए पूँजी का मुख्य स्रोत था – आम जनता से आने वाली बेहद छोटी-छोटी जमाएं । सुब्रत रॉय के सहारा परिवार ने चाय की थड़ी लगाने वाले और रिक्शा चलाने वाले जैसे समाज के अत्यंत निर्धन वर्ग के लाखों लोगों की नगण्य राशियों वाली बचतें जमा के रूप में लेकर उनका विनियोग करने तथा प्राप्त आय से उन जमाकर्ताओं को ब्याज़ अथवा लाभांश देने का काम आरंभ किया जो ख़ूब फला-फूला । प्रत्यक्षतः उनकी पूँजी का यह मूल स्रोत ही अंत में उनका वाटरलू सिद्ध हुआ ।

नब्बे का दशक आते-आते ‘सहारा इंडिया परिवार’ के नाम से जाना जाने वाला उनका व्यवसाय समूह देश के चोटी के व्यापार-गृहों में गिना जाने लगा । बीसवीं सदी लगते-लगते वे बिड़ला और अंबानी जैसों की श्रेणी में जा पहुँचे । जहाँ गुड़ होता है, वहाँ मक्खियाँ तो आती ही हैं । जब सुब्रत रॉय पेज थ्री वाली हस्ती बन गए तो क्या राजनेता, क्या फ़िल्मी सितारे और क्या खेलों एवं ग्लैमर की दुनिया के कामयाब लोग, सभी उनसे चिपकने लगे । भारत ही नहीं विश्व के प्रसिद्ध व्यक्ति भी उनके साथ चित्रों में दिखाई देने लगे । वे भारतीय क्रिकेट टीम के प्रायोजक बन गए । उन्हों 2003 में विश्व कप क्रिकेट के फ़ाइनल में पहुँचने वाली भारतीय टीम के सदस्यों को  लोनावला स्थित अंबी वैली में भव्य आवास प्रदान किए । अपनी धर्मपत्नी स्वप्ना रॉय के गीतों का एलबम निकालकर उनका गायिका बनने का स्वप्न भी पूरा किया । लखनऊ में अपना स्थायी ठिकाना बनाकर राजप्रासाद जैसे नयनाभिराम आवास में वे रहने लगे । 2004 में बेटों का विवाह-समारोह ऐसा भव्य आयोजित किया कि क्या राजकुमारों के विवाह होते होंगे । उस विवाह में तो तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी भी सम्मिलित हुए थे । अमिताभ बच्चन, ऐश्वर्य राय, सचिन तेंदुलकर, सौरव गांगुली, अमर सिंह और मुलायम सिंह यादव जैसे लोग उनसे गलबहियां करने लगे । सहारा की वित्तीय कृपा से न जाने कितने ही फ़िल्म और धारावाहिक बनाने वाले तर गए । अमिताभ बच्चन और ऐश्वर्य राय जैसे लोगों को तो उन्होंने अपनी कुछ कंपनियों में निदेशक ही बना डाला । क्रिकेट का आईपीएल शुरू हुआ तो कुछ अरसे बाद उन्होंने भी एक टीम ख़रीद ली । हॉकी तथा फॉर्मूला वन दौड़ जैसे खेलों में भी अपना दखल दे दिया ।

उन पर धन और यश की जैसे मूसलाधार बरसात हो रही थी, झड़ी लग गई थी नेमतों की । उनका और उनके सहारा परिवार का नाम जैसे दसों दिशाओं में गूंजने लगा था । प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों द्वारा उन्हें डॉक्टरेट की मानद उपाधियां दी गईं । 2004 में वे टाइम पत्रिका द्वारा रेलवे के बाद भारत के दूसरे सबसे बड़े नियोक्ता के रूप में नामांकित किए गए । 2011 में वे ‘द बिजनेस आइकॉन ऑव द ईयर’  घोषित किए गए । 2012 में इंडिया टुडे द्वारा उन्हें भारत के दस सबसे प्रभावशाली व्यवसायियों में से एक माना गया । और भी कई पुरस्कार एवं सम्मान समय-समय पर उन पर न्यौछावर किए गए ।

अपने आपको विश्व के सबसे बड़े परिवार का संरक्षक बताने वाले सुब्रत रॉय ने कुछ अच्छी परंपराएं भी डालीं जैसे सहारा इंडिया परिवार के सदस्यों द्वारा अतिथियों का स्वागत ‘सहारा प्रणाम’ करके किया जाना, कार्यस्थल पर महिलाओं की पूर्ण सुरक्षा तथा मालिक-मज़दूर के विवादों से रहित गरिमापूर्ण कार्य-संस्कृति एवं कार्य-वातावरण का विकास, आईपीएल में उनकी पुणे टीम में चीयरलीडर महिलाओं द्वारा गरिमापूर्ण पारंपरिक भारतीय पोशाक पहनकर खिलाड़ियों के अच्छे प्रदर्शन पर हर्षोल्लास भी पारंपरिक भारतीय नृत्य प्रस्तुत करके ही किया जाना आदि । उन्होंने 2013 में 1,20,000 लोगों को लखनऊ में एक स्थान पर इकट्ठा करके उनसे राष्ट्रगान गवाकर प्रतीकात्मक रूप से अपना राष्ट्र-प्रेम भी दर्शाया । जागरण जंक्शन पर रंजना गुप्ता जी द्वारा लिखे गए एक लेख से मैंने यह भी जाना कि सुब्रत रॉय प्रति वर्ष एक सौ एक निर्धन कन्याओं का कन्यादान करते थे तथा उनके विवाह सम्पन्न करवाकर अपनी उन्हें अपनी पुत्रियों की भाँति  ही विदा करते थे । यदि यह सच है तो निश्चय ही वे एवं उनकी धर्मपत्नी अत्यंत परोपकारी एवं संवेदनशील स्वभाव के हैं ।

लेकिन इतनी सारी ख़ुशनुमा बातों के संगम बने सहारा को तब किसी की बुरी नज़र लग गई जब भारत में पूँजी बाज़ार के नियामक प्राधिकरण का कार्य करने वाले भारतीय प्रतिभूति तथा विनिमय मण्डल यानी कि सेबी ने किसी रोशन लाल की शिकायत को आधार बनाते हुए सहारा समूह की पूंजी एवं उसमें धन की आवक-जावक की जाँच आरंभ कर दी । अपने आपको सहाराश्री कहने और कहलवाने वाले सुब्रत रॉय ने भारतीय नियम-क़ानूनों की परवाह नहीं की और सेबी की जाँच को गंभीरता से नहीं लिया । उन्होंने न्यायालय के समक्ष प्रस्तुत होने वाले न्यायिक आदेशों की भी अवहेलना कर डाली (यद्यपि इसके लिए उन्होंने अपनी माता के अस्वस्थ होने का तर्क दिया) । संभवतः सहारा परिवार के प्रमुख का यह अहंकार ही उन्हें ले डूबा । ऐसा कहा जाता है कि अपनी गोष्ठियों तथा कार्यक्रमों में विलंब से आने वालों को सुब्रत रॉय बुरी तरह अपमानित किया करते थे । उनके सनकीपन के भी कई किस्से प्रसिद्ध रहे हैं । लेकिन तथाकथित सहाराश्री यह भूल बैठे कि घमंडी का सर नीचा होकर ही रहता है । ऊंट आपने आपको चाहे कितना ही ऊंचा समझे, जब वह पहाड़ के नीचे आता है तो उसे अपनी असली औक़ात पता चलती है और उसकी समझ में आता है कि वह दुनिया में सबसे ऊंचा नहीं है । सुब्रत रॉय का ऊंट जब भारतीय न्यायपालिका रूपी पहाड़ के नीचे आया तो उन्हें अपनी उन सीमाओं का भान हुआ जिन्हें वे बिसरा बैठे थे । लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी थी ।

सर्वोच्च न्यायालय ने उन्हें उठाकर सीधे तिहाड़ जेल भेज दिया जहाँ वे पिछले दो साल से एड़ियां घिस रहे हैं । न्यायालय ने सहारा समूह को जमाकर्ताओं की 20000 करोड़ रुपये की निवेशित राशि पंद्रह प्रतिशत ब्याज़ सहित उन्हें लौटाने के लिए सेबी के पास जमा करने का निर्देश दिया था जबकि सुब्रत रॉय को ज़मानत पर छोड़ने के लिए 10000 करोड़ रुपये की राशि तय की थी जो कि 5000 करोड़ रुपये नकद तथा 5000 करोड़ रुपये बैंक गारंटी के रूप में देनी थी । संसार के न्यायिक इतिहास में ऐसा कोई दूसरा उदाहरण उपलब्ध नहीं है जिसमें ज़मानत की राशि इतनी विशाल तय की गई हो । सहारा समूह के पास सेबी को देने के लिए 23000 करोड़ रुपये तो दूर अपने सर्वेसर्वा सुब्रत रॉय को कारागृह से मुक्त करवाने के लिए 10000 करोड़ रुपये भी नहीं हैं । सहारा का कहना है कि 95 प्रतिशत निवेशकों को उनकी जमा राशियां पहले ही लौटाई जा चुकी हैं । तो फिर सेबी कौनसी जमाओं का धन माँग रहा है ? सुब्रत रॉय ने अपनी व्यावसायिक गतिविधियों को भारतीय कंपनी अधिनियम के अंतर्गत आने से भरसक बचाए रखा था ताकि वे सेबी की जाँच-पड़ताल के क्षेत्र से बाहर रहें  लेकिन अंततः वे सेबी के चक्रव्यूह में फंसकर ही रहे । उनकी संदिग्ध गतिविधियां मुख्यतः दो कंपनियों के माध्यम से वैकल्पिक परिवर्तनीय बॉण्ड निर्गमित करके धन उगाहने से जुड़ी रही हैं । उनके बहुत-से निवेशक फ़र्जी बताए जाते हैं जिनके अस्तित्व को सत्यापित कर पाना संभव ही नहीं है । ऐसा कहा जाता है कि सहारा की पूँजी वस्तुतः जनता की जमाएं नहीं बल्कि उससे प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से जुड़े लोगों का काला धन है । यदि ऐसा है तो सहारा को हज़ारों करोड़ रुपये अपनी ज़ेब से निकालकर देने होंगे जिसका नतीज़ा यह निकलेगा कि यह समूह दिवालिया हो जाएगा । जनसामान्य ने सुब्रत रॉय को शानोशौकत की ज़िन्दगी से निकलकर तिहाड़ जेल की कालकोठरी में जाते हुए तो देखा है लेकिन परदे के पीछे छुपा रहस्य क्या है, यह तो सुब्रत रॉय और उनके करीबी ही बेहतर जानते हैं ।

इस सारे प्रकरण का सूक्ष्मता से अध्ययन करने के उपरांत जो बुद्धि में आया है, वह यही है कि सुब्रत रॉय किसी गहन षड्यंत्र का शिकार हुए हैं । अपने आप को रॉबिनहुड और लघु निवेशकों का भगवान समझकर मुगालतों में जीते हुए सुब्रत रॉय यह भूल बैठे कि व्यवसाय जगत में आपकी सफलता से ईर्ष्या करने वाले, आपको नीचा दिखाने में रुचि लेने वाले और आपको हानि पहुँचाने हेतु आपके विरुद्ध षड्यंत्र रचने वाले शत्रुओं का कोई अभाव नहीं होता है । आपके घर में अपने भेदी घुसा दिए जाते हैं, झूठे-सच्चे आधारों पर आपके विरुद्ध कार्रवाई करने के लिए सरकारी तंत्र को ख़रीद लिया जाता है और जनता में आपकी छवि बिगाड़ने के लिए झूठी-सच्ची अफ़वाहें उड़ाई जाती हैं । जहाँ तक भारतीय न्यायपालिका का प्रश्न है, उसकी निष्पक्षता और तार्किकता केवल एक मिथक है जो जनता में अपनी विश्वसनीयता बनाए रखने के लिए उसने स्वयं घड़ा है । वह अपने तथाकथित मान के प्रति इतनी सजग रहती है कि उसे आपका धुर-विरोधी बना देने के लिए इतना ही पर्याप्त है कि आपको उसकी अवमानना के दोषी के रूप में चित्रित कर दिया जाए । सुब्रत रॉय के साथ यही हुआ लगता है और ज़मानत की राशि असाधारण रूप से इतनी अधिक संभवतः इसीलिए है ताकि सुब्रत रॉय को सींखचों के पीछे ही रखा जाए और उनके बाहर आने को कठिन-से-कठिनतर बना दिया जाए । अगर सुब्रत रॉय ने अपनी व्यावसायिक गतिविधियों के संचालन में भारतीय विधि-विधान तथा विभिन्न राजकीय विनियमों का उल्लंघन किया है तो क्या ऐसा करने वाले वे अकेले व्यवसायी हैं ? क्या करोड़ों-अरबों में खेलने वाले बाकी सभी भारतीय व्यवसायी दूध के धुले हैं ? लेकिन सेबी और सर्वोच्च न्यायालय की गाज़ केवल सुब्रत रॉय पर ही इस तरह गिरी है मानो व्यापार और कॉर्पोरेट जगत के सभी घोटाले सहारा ने ही किए हैं और किसी ने नहीं । सुब्रत रॉय को जीवन भर के लिए कारागृह में सड़ा देने से सहारा के निवेशकों और आम जनता का हित-साधन कैसे हो सकता है, क्या न्याय के रक्षक इसे स्पष्ट करेंगे ?

जब किसी का नुकसान होता है तो उस नुकसान से किसी दूसरे का फ़ायदा होता ही है । सहारा की बरबादी से भी किसी को तो फ़ायदा होगा ही । किसे होगा, यह अभी स्पष्ट नहीं है । लेकिन सुब्रत रॉय के शत्रुओं की रणनीति स्पष्ट है – उन्हें जीवनपर्यंत कारागृह से बाहर न आने दिया जाए । सहारा-प्रमुख को अपनी ज़मानत हेतु धन के प्रबंध के लिए अपनी परिसंपत्तियां बेचने हेतु अस्थायी रूप से भी बाहर नहीं आने दिया जा रहा है । कुछ समय के लिए उन्हें कारावास में रहते हुए ही अपनी परिसंपत्तियों के विक्रय हेतु कुछ कार्यालयीन सुविधाएं अवश्य प्रदान की गई थीं लेकिन वह सब भी न्यायालय की दयालुता का ढकोसला ही था और कुछ नहीं क्योंकि हज़ारों करोड़ के सौदे इस तरह हो ही नहीं सकते । उनके लिए तो सहारा-प्रमुख जैसे दक्ष व्यवसायी का दूसरे पक्ष के लोगों से व्यक्तिगत रूप से भेंट करके विचार-विमर्श करना अपरिहार्य होता है । वैसे भी सहारा-प्रमुख की बदहाली का सारी दुनिया में ढोल पिट चुकने के बाद अब सहारा समूह की जायदाद बिकेगी भी तो औने-पौने में ही बिक सकेगी और उस बिक्री में सहारा समूह को निस्संदेह भारी घाटा उठाना पड़ेगा ।

अब सूरत-ए-हाल यह है कि ढेरों मुसीबतज़दा लोगों के बुरे वक़्त में उनका सहारा बनने वाले सहारा का उसके बुरे वक़्त में सहारा बनने वाला कोई नहीं है और कुछ अरसा पहले तक सहाराश्री बनकर ऐंठने वाले सुब्रत रॉय का साथ वे सब लोग छोड़ चुके हैं जो कि केवल अपने मतलब के लिए उनसे चिपकते थे । मतलबी यार किसके, खाया-पिया खिसके । चुनावी राजनीति के लिए व्यापार-जगत के माध्यम से पैसों का जुगाड़ करने वाले और बहुत-से लोगों के बड़े भाई और छोटे भाई बन बैठने वाले अमर सिंह और उनके पुराने आका यानी कि घाघ राजनीतिज्ञ मुलायम सिंह यादव तक सुब्रत रॉय से कन्नी काट चुके हैं । तथाकथित ‘सदी के महानायक’ अमिताभ बच्चन के आर्थिक संकट के समय जब सुब्रत रॉय ने उनकी मदद की थी तो अमिताभ बच्चन ने यहाँ तक कह दिया था कि अगर सहाराश्री के घर में मुझे झाड़ू-पोंछा लगाना पड़े तो वह भी मैं करूंगा क्योंकि मैं जानता हूं कि उन्होंने मेरे लिए क्या किया । अब वही अवसरवादी अमिताभ बच्चन जो राजनीति छोड़ चुके हैं लेकिन सदा पॉलिटिकली करेक्ट रहते हैं और उनकी तिकड़मी बहू ऐश्वर्य राय, दोनों ही केवल सुख के साथियों की भांति दुख के समय सुब्रत रॉय से मुँह मोड़ चुके हैं । सुब्रत रॉय के अच्छे वक़्त में उनके नाम की माला जपने वाले और अब उनको पीठ दिखाकर भाग जाने वाले ऐसे और भी बहुत-से लोग हैं । किसी समय टोनी ब्लेयर तक के निकट जा पहुँचने वाले सुब्रत रॉय आज अकेले और बेयारोमददगार हैं ।

मुझे स्वर्गीय गुरुदत्त की कालजयी फ़िल्म ‘काग़ज़ के फूल’ बहुत पसंद है जिसका गीत ‘देखी जमाने की यारी, बिछुड़े सभी बारी-बारी’ न केवल जीवन की सच्चाई का वर्णन करता है बल्कि वह सुब्रत रॉय की वर्तमान अवस्था पर भी शब्दशः लागू है । सफलता और असफलता के बीच के इस अंतर को सुब्रत रॉय अब भलीभांति समझ गए होंगे । मैं नहीं जानता कि सुब्रत रॉय जीते जी कारागार से बाहर आ सकेंगे या नहीं लेकिन आशा है कि अब उनके भीतर अपनी शक्ति का ही नहीं वरन अपने कथित पुण्यों और सद्गुणों का भी अहंकार समाप्त हो चुका होगा । अब वे समझ गए होंगे कि वक़्त से बड़ा कोई नहीं । वक़्त जब अपनी पर आता है तो इंसान की हेकड़ी को एक झटके में चूर-चूर कर देता है । साहिर लुधियानवी साहब का लिखा यह नग़मा हर दौर में मौजूं है – ‘वक़्त से दिन और रात, वक़्त से कल और आज, वक़्त की हर शै ग़ुलाम, वक़्त का हर शै पे राज’ । इसी नग़मे की यह सतर जो आज सुब्रत रॉय पर लागू है, कल किसी और पर भी हो सकती है – ‘आदमी को चाहिए, वक़्त से डरकर रहे; कौन जाने किस घड़ी वक़्त का बदले मिज़ाज’ ।

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