Menu
blogid : 19990 postid : 1144454

बंदर के हाथ लगा उस्तरा और . . . और छिन्न-भिन्न हो गया समाज

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
  • 51 Posts
  • 299 Comments

पुरानी कहावत है कि बंदर के हाथ उस्तरा नहीं लगना चाहिए । इसका अभिप्राय यह है कि मूर्ख व्यक्ति के हाथ कोई शक्ति या अधिकार नहीं आना चाहिए क्योंकि अपनी मूर्खता के वशीभूत वह उसका सदुपयोग न करके दुरुपयोग कर सकता है जिसका परिणाम उसके लिए ही नहीं, दूसरों के लिए भी हानिकारक हो सकता है । इसी बात को आधुनिक संदर्भों में मैं यूँ कहना चाहता हूँ कि किसी भी विभाग या संगठन या संस्था या शासन के सर्वोच्च पद पर कोई अपरिपक्व और अदूरदर्शी व्यक्ति नहीं पहुँचना चाहिए क्योंकि सर्वोच्च पद स्वाभाविक रूप से बहुत अधिक अधिकार-सम्पन्न होता है और अविवेकी व्यक्ति के हाथ असीमित अधिकारों का लगना बंदर के हाथ उस्तरा लगने के सादृश्य ही होता है । और यदि कोई विवेकहीन व्यक्ति भारत जैसे विशाल और विविध देश के सर्वोच्च कार्यकारी के पद पर जा बैठे यानी कि प्रधानमंत्री बन जाए तो उसके कार्यकलाप जनता, समाज और राष्ट्र के लिए कोढ़ में खाज ही सिद्ध होते हैं । दुर्भाग्यवश दिसंबर १९८९ में ऐसा ही हो गया था जब एक अपरिपक्व, सनकी और विवेकशून्य व्यक्ति भारतीय मतदाताओं के एक बड़े वर्ग को भ्रमित करके भारत का प्रधानमंत्री बन बैठा था । कुछ ही महीनों बाद बंदर के हाथ लगे उस उस्तरे ने राष्ट्र की व्यवस्था पर ऐसा वार किया कि पहले से ही विखंडित भारतीय समाज की एकता एवं समरसता पूरी तरह बिखर गई और हमारा एकजुट समाज छिन्न-भिन्न हो गया – सदा के लिए । उस अदूरदर्शी और संकीर्ण सोच वाले व्यक्ति ने प्रधानमंत्री बनकर अपने एक अनुचित निर्णय से भारतीय समाज और राजनीति को ऐसी हानि पहुँचा दी कि जिसकी क्षतिपूर्ति अब संभव ही नहीं लगती ।

उस राजनेता का नाम था विश्वनाथ प्रताप सिंह । दहिया (उत्तर प्रदेश) के एक जमींदार परिवार में जन्मे विश्वनाथ प्रताप सिंह मांडा रियासत के राजा द्वारा गोद लिए जाने के कारण कालांतर में उनके उत्तराधिकारी बने और ‘राजा मांडा’ कहलाने लगे । छात्र जीवन से ही राजनीति में रुचि लेकर वे भूदान आंदोलन से भी जुड़े और कालांतर में कांग्रेस पार्टी में सम्मिलित होकर इन्दिरा गांधी के विश्वासपात्र बने । इन्दिरा जी के प्रति उनकी अविकल निष्ठा तब फलित हुई जब १९८० में इन्दिरा जी ने उन्हें उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्री बनाया । उन्हे सीधा मुख्यमंत्री नामित करके तब भेजा गया था जब उत्तर प्रदेश के कांग्रेस विधायक दल ने संजय गांधी को अपना नेता चुन लिया था लेकिन इन्दिरा जी अपने चहेते पुत्र को अपने साथ केंद्रीय राजनीति में ही देखना चाहती थीं और किसी एक राज्य की राजनीति में सीमित नहीं होने देना चाहती थीं ।

जिन दिनों राजा मांडा उर्फ़ वी.पी. सिंह ने उत्तर प्रदेश का मुख्यमंत्रित्व संभाला, उन दिनों उत्तर प्रदेश (तथा हिन्दी पट्टी के अन्य राज्यों में भी) दस्युओं का आतंक छाया हुआ था । स्वयं वी.पी. सिंह के सगे भाई चन्द्रशेखर प्रसाद सिंह जो कि इलाहाबाद उच्च न्यायालय में वरिष्ठ न्यायाधीश थे, की भी दस्युओं द्वारा हत्या कर दी गई थी । मुख्यमंत्री के रूप में वी.पी. सिंह ने डाकुओं के विरुद्ध बड़े पैमाने पर पुलिस अभियान चलाया जिसमें दस्यु-उन्मूलन की आड़ में निर्दोष नागरिकों पर अत्याचार होने के आरोप भी लगे । मुलायम सिंह यादव ने इसी बात को आधार बनाकर राज्य में अपनी राजनीति को ख़ूब चमकाया और वे वी.पी. सिंह के प्रबल राजनीतिक विरोधी बनकर उभरे । उन्होंने वी.पी. सिंह पर आरोप लगाया कि वे अपने भाई की हत्या का प्रतिशोध निर्दोषों से ले रहे थे । दूसरी ओर वी.पी. सिंह ने  घोषणा की कि यदि वे एक निर्धारित समय-सीमा में राज्य से डकैतों का सफ़ाया नहीं कर सके तो मुख्यमंत्री पद से त्यागपत्र दे देंगे । लेकिन डकैतों द्वारा नृशंस हत्याएं किए जाने का सिलसिला जब नहीं थमा तो जुलाई १९८२ में वी.पी. सिंह ने इस्तीफ़ा दे दिया । वी.पी. सिंह के इस त्यागपत्र की तुलना भारत के महान सपूत श्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा १९५६ में एक रेल दुर्घटना का नैतिक उत्तरदायित्व लेते हुए रेल मंत्री के पद से दिए गए त्यागपत्र से की गई और इस तरह वे जनता में अपनी एक निष्ठावान और पदलोलुपता से मुक्त त्यागी राजनेता की छवि बनाने में सफल रहे जो कि उनका अभीष्ट था ।

इसके ढाई साल बाद वी.पी. सिंह  को १९८५ में राजीव गांधी के नेतृत्व में बनी केंद्रीय सरकार में वित्त मंत्री का पद संभालने का अवसर मिला । उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री के रूप में जो वी.पी. सिंह डकैतों पर हल्ला बोलते थे, वे भारत के वित्त मंत्री के रूप में आयकर विभाग के माध्यम से स्वयं ही कानूनी डकैतियां डलवाने लगे । आयकर विभाग और सी.बी.आई.  के छापों की बाढ़ आ गई और व्यावसायिक-गृहों में भय की लहर दौड़ गई । देश को मानो यह समझाया जाने लगा कि व्यवसाय के माध्यम से उपार्जन करने वाला हर व्यक्ति कानून का उल्लंघन ही करता है । अपने आरंभिक कार्यकाल में राजीव गांधी का विश्वास जीत चुके वी.पी. सिंह निस्संकोच भारतीय अर्थव्यवस्था रूपी सागर की बड़ी मछलियों पर अपना जाल फेंकने लगे । यहाँ तक कि उस समय देश के पांचवें सबसे बड़े उद्योगपति ललित मोहन थापर को तिहाड़ जेल में एक रात गुज़ारनी पड़ी । इन सच्चे छापों की आड़ में झूठे छापे डालकर कुछ ठग भी अपना उल्लू सीधा करने लगे । बहरहाल भ्रष्टाचार-विरोधी के रूप में गढ़ी गई वी.पी. सिंह की छवि जनमानस में निखरती ही चली गई लेकिन उस समय कोई यह नहीं भांप सका कि एक लंबी योजना पर काम कर रहे वी.पी. सिंह का ध्येय वस्तुतः यही था । प्रधानमंत्री से सलाह लिए बिना ही वी.पी. सिंह ने विदेशों में जमा भारतीय धन का पता लगाने के लिए फ़ेयरफ़ैक्स नामक अमरीकी संस्था की सेवाएं ले डालीं और यह प्रकरण अत्यंत विवादास्पद रहा । जनवरी १९८७ में उन्हें वित्त से रक्षा मंत्रालय में स्थानांतरित किया गया तो रक्षा मंत्री के रूप में उन्होंने पनडुब्बियों की ख़रीद के सौदे में कथित रूप से दी गई ३० करोड़ रुपये की दलाली की जाँच के आदेश दे डाले । इसी मुद्दे पर प्रधानमंत्री के साथ स्पष्ट मतभेद को लेकर वी.पी. सिंह ने इस बार रक्षा मंत्री के पद से इस्तीफ़ा दे दिया और यह बयान भी दे दिया कि अब वे सरकार या पार्टी में कोई पद स्वीकार नहीं करेंगे । ऐसे में नायकों की खोज में सदा ही रहने वाले भारतीय आमजन को वी.पी. सिंह में एक सत्यनिष्ठ और पदलिप्साहीन राजनीतिज्ञ दिखाई देने लगा । मीडिया तो बहुत पहले से ही उन्हें ख़ूब फूंक दे रहा था । अब तो वे सुर्खियों में पूरी तरह छा गए । यह और बात है कि बाद में जाँच पूरी होने पर यही प्रमाणित हुआ कि पनडुब्बियों के उस सौदे में कोई दलाली नहीं दी गई थी । लेकिन इस बात पर न मीडिया ने ध्यान दिया और न ही जनता ने । बहरहाल अपनी छवि चमकाने का वी.पी. सिंह का मक़सद तो हल हो ही चुका था ।

रक्षा मंत्री के पद से त्यागपत्र देने के उपरांत तुरत-फुरत ही वी.पी. सिंह के भाग्य से छींका टूटा (या शायद इसके पीछे भी कोई गहरी योजना थी) जब स्वीडिश रेडियो पर स्वीडन की एबी. बोफ़ोर्स कंपनी से होविट्ज़र तोपों की ख़रीद के सौदे में भारतीय बिचौलियों को ६४ करोड़ रुपये की दलाली देने का आरोप लगाया गया । इस मामले को लेकर वी.पी. सिंह सड़कों पर जा पहुँचे और ‘भ्रष्टाचार के विरोध में जनजागरण’ जैसा अभियान चलाते हुए आरंभ में मिस्टर क्लीन कहलाने वाले राजीव गांधी और उनकी सरकार को जनता के सामने दाग़दार और बेईमान साबित करने लगे । उन्होंने राजीव गांधी के निकट मित्र, सांसद और प्रसिद्ध फ़िल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन को भी इस मामले में लपेटा और ऐसे संकेत दिए कि अमिताभ बच्चन के भाई अजिताभ बच्चन भी इस सौदे में परोक्ष रूप से सम्मिलित रहे थे । वी.पी. सिंह से परेशान होकर राजीव गांधी ने आख़िर जब जुलाई १९८७ में उन्हें और उनके साथ आ जुड़े कुछ अन्य असंतुष्ट कांग्रेसियों को पार्टी से बाहर का रास्ता दिखा दिया तो उसके साथ ही एक ओर अमिताभ बच्चन ने अपनी लोक सभा सीट से इस्तीफ़ा दे दिया और दूसरी ओर अजिताभ बच्चन पर लगाए गए आरोपों की जाँच के आदेश भी दे दिए गए । अजिताभ बच्चन न केवल जाँच में निर्दोष सिद्ध हुए बल्कि उन्होंने उस स्वीडिश अख़बार के विरुद्ध मानहानि का मुक़द्दमा दायर करके उसे पहले दिन ही घुटने टेकवा दिए जिसने उन पर आरोप लगाए थे । अमिताभ बच्चन ने राजनीति छोड़ दी और कालांतर में गांधी परिवार से उनके संबंध भी बिगड़ गए । लेकिन वी.पी. सिंह अब लोकप्रियता रूपी उस हवाई घोड़े पर सवार थे जो उन्हें भारत के प्रधानमंत्री पद की ओर लिए जा रहा था ।

इस घटनाक्रम से विपक्षी दलों को वी.पी. सिंह के रूप में भारतीय मतदाताओं की दृष्टि में उनका नया तारणहार बनकर उभरने वाला और फलस्वरूप चुनाव में थोक के भाव वोट दिलवा सकने वाला  नेता दिखाई देने लगा । आनन-फ़ानन में राजा मांडा के इर्द-गिर्द विपक्षी दल जमा हो गए । नया राजनीतिक दल बना, नया  राजनीतिक गठबंधन उद्भूत हुआ एवं जनसभाओं, कुछ अति-उत्साही पत्रकारों के खोजपूर्ण लेखों तथा विभिन्न संचार माध्यमों से राजीव गांधी पर कीचड़ उछाला जाने लगा ।  इस कथित भ्रष्टाचार-विरोध के अग्रणी बने वी.पी. सिंह ने अब सीधे राजीव गाँधी पर उंगली उठाकर जनता के समक्ष उन्हें भ्रष्टाचार के प्रतीक के रूप में चित्रित कर दिया । देश का युवा वर्ग कम-से-कम उस वक़्त तक भौतिकवाद की दलदल में गहरा नहीं धंसा था और उसे सच्चाई, ईमानदारी और देशप्रेम जैसे मूल्य आकर्षित करते थे । अतः वी.पी. सिंह की बन आई । वी.पी. सिंह ने प्रमुखतः विद्यार्थी-वर्ग को अपना लक्ष्य बनाया और अपने भाषणों से उन्हें ऐसा अनुभव करवाया मानो सरकारी कामकाज से भ्रष्टाचार को मिटाने और ईमानदारी को स्थापित करने के लिए राजीव गांधी तथा उनके दल को सत्ताच्युत करना अपरिहार्य था । देश के करोड़ों युवा एक बेहतर राष्ट्र और एक बेहतर कल की आशा में विश्वनाथ प्रताप सिंह को अपना आदर्श मान बैठे । जिस किशोरावस्था में जी रहे विद्यार्थी वर्ग को मताधिकार दिलवाया ही राजीव गांधी ने था (मत देने की न्यूनतम आयु को २१ वर्ष से घटाकर १८ वर्ष करके), वही आधी-अधूरी और भ्रामक सूचनाओं वाले कथित बोफ़ोर्स घोटाले के विरोध की लहर में बहकर उनके खिलाफ़ हर गली-कूचे और नुक्कड़ पर उतर आया । उन दिनों वी.पी. सिंह के सम्मोहन में फंसे करोड़ों भारतीय युवाओं में जितेन्द्र माथुर नामक एक १७-१८ वर्षीय किशोर भी था जो उन दिनों बी. कॉम. की पढ़ाई कर रहा था ।

इस तरह  १९८९ के लोक सभा चुनाव में राजीव गांधी के चरित्र पर बोफ़ोर्स सौदे की दलाली की कालिख पोतकर वी.पी. सिंह प्रधानमंत्री के पद पर जा बैठे । उत्तर भारत में कांग्रेस पार्टी का सूपड़ा साफ़ हो जाने के बाद भी वी.पी. सिंह का दल अपने दम पर सरकार नहीं बना सका और उसे भारतीय जनता पार्टी और वाम मोर्चे रूपी बिलकुल विपरीत ध्रुवों जैसी दो बैसाखियों का सहारा लेना पड़ा । प्रधानमंत्री बनने के उपरांत वी.पी. सिंह ने बोफ़ोर्स कांड की सच्चाई को सामने लाने के लिए कोई सार्थक प्रयास नहीं किए और बिना किसी ठोस प्रमाण के राजीव गांधी पर आरोपित ६४ करोड़ की दलाली का यह कलंक उनकी मृत्यु के ढाई दशक बाद भी उनके नाम पर लगा हुआ है जबकि इस बीच हजारों करोड़ के घोटाले हो चुके हैं  जिनके आरोपी राजनेता न्यायालय से दंडित तक हो चुकने के उपरांत भी सीना तानकर घूमते हैं और अपनी राजनीति चलाते हैं । लेकिन अब वी.पी. सिंह को भ्रष्टाचार से कोई मतलब नहीं था । उन्होंने  मुफ़्ती मोहम्मद सईद को भारत का गृह मंत्री बनाया जिनकी पुत्री डॉक्टर रुबाइया सईद को उनका अपहरण करने वालों से छुड़वाने के लिए ख़तरनाक आतंकियों को कारागार से रिहा करके  एक ग़लत परंपरा की नींव डाल दी गई जिसके तुरंत बाद ही वर्षों से शांत पड़ा कश्मीर सुलग उठा, निर्दोष कश्मीरी पंडित अपने घरों से बेघर कर दिए गए और पाकिस्तान-समर्थक आतंकवादियों के हौसले हमेशा के लिए बुलंद हो गए । लेकिन वी.पी. सिंह की सेहत पर इसका कोई फ़र्क नहीं पड़ा ।

उनके अपने ही दल में फूट पड़ी हुई थी और प्रधानमंत्री बन सकने में विफल रहे हरियाणा के महत्वाकांक्षी नेता चौधरी देवीलाल आए दिन कोई-न-कोई नई मुसीबत खड़ी करते रहते थे । आख़िर वी.पी. सिंह ने देवीलाल को मंत्रिपरिषद से निकाल दिया लेकिन उसके बाद अपनी सियासी ज़मीन मजबूत करने और पिछड़ों का मसीहा बनने के लिए उन्होंने समाज के कथित पिछड़े वर्गों को जातिगत आधार पर नौकरियों और उच्च शिक्षा में आरक्षण देने वाली बी.पी. मण्डल की अलमारी में धूल चाट रही रिपोर्ट को बिना किसी से सलाह-मशविरा किए लागू कर दिया । जहाँ अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के आरक्षण के विरुद्ध ही देश के युवा वर्ग में वातावरण बना हुआ था, इस रिपोर्ट को लागू करने के निर्णय ने आग में घी का काम किया । भ्रष्टाचार-उन्मूलन और सार्वजनिक जीवन में शुचिता के नाम पर वी.पी. सिंह को समर्थन देने वाले देश के युवाओं ने स्वयं को छ्ला हुआ अनुभव किया और कुंठित युवा सड़कों पर उतर आए । बहुत-से युवाओं ने तो निराश होकर आत्मदाह तक कर लिए । लेकिन अपने आपको कवि बताने वाले वी.पी. सिंह की मोटी त्वचा पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा । उन दिनों उनके संवेदनहीन व्यवहार की तुलना नीरो के दृष्टिकोण से की जा सकती है जो तब बंसी बजा रहा था जब रोम जल रहा था ।

मण्डल की काट के लिए भारतीय जनता पार्टी का कमंडल आया और आगे के घटनाक्रम का परिणाम यह हुआ कि वी.पी. सिंह की सरकार गिर गई । लेकिन मण्डल रिपोर्ट रूपी जो चिंगारी वे भारत की  सामाजिक और राजनीतिक व्यवस्था में लगा गए थे, वह दावानल बन गई जिसमें हमारा देश आज तक जल रहा है । पिछड़े वर्ग के आरक्षण ने सत्ता की चांदी काटने के लिए भारत के संकीर्ण सोच वाले राजनेताओं की तो मानो लॉटरी लगा दी । उन्हें तो जादुई मंत्र मिल गया कि जिस किसी भी समुदाय के वोट चुनाव जीतने के लिए चाहिए हों, उसे पिछड़े वर्ग में डालकर आरक्षण दे दो । तथाकथित सामाजिक न्याय के नाम पर सामाजिक समरसता को सदा के लिए भंग कर दिया गया और देश अगड़ों और पिछड़ों में बंट कर रह गया । विभिन्न समुदायों में ऐसा वैमनस्य फैला दिया गया जो बढ़ता ही जा रहा है, घटने का नाम ही नहीं लेता । इन्दिरा जी के समय में दी गई मण्डल आयोग की रिपोर्ट दोषपूर्ण थी और एक परिपक्व राजनेत्री के रूप में इन्दिरा जी उसको लागू किए जाने में अंतर्निहित ख़तरों को भलीभाँति समझती थीं । इसीलिए उन्होंने उसे धूल चाटने के लिए अलमारी में बंद कर दिया था । इन सिफ़ारिशों के विरोध में सर्वोच्च न्यायालय में दायर याचिका पर जब बहस हुई थी तो देश के माने हुए विधिवेत्ता नानी ए. पालखीवाला ने अपने अकाट्य तर्कों से इसके दोषपूर्ण प्रावधानों की धज्जियां उड़ा दी थीं । लेकिन अपने आपको इतिहास-पुरुष के रूप में स्थापित करने पर उतारू वी.पी. सिंह और पिछड़ों का वोट बैंक बनाकर लंबे समय तक सत्ता की फ़सल काटने को उतावले उनके चेले तब जीत गए जब सर्वोच्च न्यायालय ने इन सिफ़ारिशों को लागू किए जाने पर से रोक हटा दी । इस आरक्षणवादी व्यवस्था का परिणाम यह निकला है कि अब कोई अगड़ा नहीं कहलाना चाहता । अब तो हर समुदाय पिछड़ा कहलाकर सरकारी नौकरियों में लाभ लेना चाहता है और यह बात सब जान गए हैं कि वोटों की ताक़त से किसी भी सरकार को बड़ी आसानी से झुकाया जा सकता है । यह देश को दिया गया वी.पी. सिंह का वह अवांछित उपहार है जिसके विषय में १९८७ में  उनके एक स्वर पर व्यवस्था-परिवर्तन हेतु उठ खड़े हुए भारत के आदर्शवादी युवाओं ने स्वप्न में भी नहीं सोचा था । तीस साल पहले मन में व्यवस्था को स्वच्छ करने और राष्ट्र को उन्नत करने की उमंग लिए वे युवा यह नहीं जानते थे कि अनजाने में वे बंदर के हाथ में उस्तरा थमाने जा रहे थे । अब उस उस्तरे द्वारा दिए गए कभी न भरने वाले घाव की पीड़ा सारा देश और एकात्म भारतीय समाज झेल रहा है और वी.पी. सिंह द्वारा ठगे गए वे करोड़ों युवा (जिनमें जितेन्द्र माथुर भी सम्मिलित है) पछता रहे हैं ।

वी.पी. सिंह को १९९६ में संयुक्त मोर्चे की सरकार के नेता के रूप में प्रधानमंत्री बनने का प्रस्ताव मिला था जिसे ठुकराकर उन्होंने ठीक ही किया अन्यथा दूसरी बार प्रधानमंत्री बनकर वे न जाने देश का क्या हाल करते ? धीरे-धीरे वे भारतीय राजनीति में अप्रासंगिक होते चले गए जबकि उनके द्वारा लगाई गई ओबीसी आरक्षण की आग की आँच में उनके समर्थक और विरोधी दोनों ही श्रेणियों के राजनेताओं ने अपनी ख़ूब रोटियां सेकीं । ओबीसी आरक्षण सुरसा के मुँह की तरह बढ़ता ही गया और बढ़ता ही जा रहा है; आरक्षण के नाम पर देश टूटता ही गया और टूटता ही जा रहा है । कोई अंत दिखाई नहीं देता इस सिलसिले का । अंबेडकर द्वारा रचित संविधान में दलित और आदिवासी वर्गों के लिए आरक्षण की व्यवस्था मूल रूप से दस वर्षों के लिए थी लेकिन मण्डल के नाम पर फैलाए जा रहे ओबीसी आरक्षण की तो कोई समय-सीमा ही नहीं है और वोटों के सौदागर तो इसे अनंतकाल तक चलाए रखने पर उतारू हैं चाहे सम्पूर्ण राष्ट्र ही विनाश को प्राप्त क्यों न हो जाए ? अब परिश्रम करके अपने साथ-साथ राष्ट्र की भी उन्नति चाहने की मानसिकता नहीं रही क्योंकि सभी को पिछड़ा बनकर आरक्षण लेने में ही फ़ायदा दिखाई देता है । इसलिए पिछड़ा कहलाने की होड़ मची है ।  वी.पी. सिंह की मेहरबानी से लागू हुआ ओबीसी आरक्षण अब दीनता से नहीं,  दबंगई से लिया जाता है जिसके लिए अन्य वर्गों को तथा राष्ट्र को किसी भी सीमा तक हानि पहुँचाने में भी कतिपय आरक्षण माँगने वालों को कोई संकोच या अपराध-बोध नहीं होता । ‘देश रहे या मिटे, हमें क्या; हमें तो आरक्षण चाहिए’ वाली सोच बन चुकी है । अब सब जान गए हैं कि वोट-आधारित सत्ता की राजनीति के चलते आरक्षण को कभी समाप्त नहीं किया जा सकता । इसलिए अब योग्यता की बातें बंद हो गई हैं । अब आरक्षण को समाप्त करने की बात की जगह यह कहा जाता है कि उन्हें दे रहे हो तो हमें भी दो ।

वी.पी. सिंह के भ्रष्टाचार-विरोधी आंदोलन से जुड़कर सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने वाले कतिपय लोग तो कालांतर में स्वयं ही भ्रष्टाचार में आकंठ डूब गए । उनके सत्तासीन होने के बाद राजनीतिक और प्रशासनिक हलक़ों से भ्रष्टाचार घटा नहीं, अनेक गुना बढ़ गया । इसके अतिरिक्त जातिवादी राजनीति के चलते गुंडागर्दी भी खूब बढ़ी । देश के दो सबसे बड़े राज्यों उत्तर प्रदेश और बिहार में मतदान और सत्ता के समीकरण इस कदर बदल गए कि इन राज्यों में कांग्रेस दल हमेशा के लिए मिट्टी में मिल गया । बहुत गहरी कब्र खुद गई कांग्रेस की यूपीबिहार में । इससे अंततः केवल कांग्रेस दल को ही नहीं सम्पूर्ण राष्ट्र को भी स्थायी क्षति पहुँची क्योंकि अब इन दो राज्यों में सम्पूर्ण समाज के उत्थान से जुड़ी राजनीति के स्थान पर वर्ग और जाति विशेष की राजनीति करने वालों का बोलबाला हो गया । बोफ़ोर्स सौदे के नाम पर राजीव गांधी को गालियां देने वालों को याद नहीं कि उन्हीं बोफ़ोर्स तोपों ने वर्षों बाद कारगिल के युद्ध में भारतीय सेना की विजय में अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका निभाई । और किसी को यह भी याद नहीं कि मण्डल रिपोर्ट को लागू करके सामाजिक ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर देने वाले वी.पी. सिंह को प्रधानमंत्री के पद तक जनता ने पहुँचाया ही इस आश्वासन पर था कि वे बोफ़ोर्स सौदे में दी गई दलाली के सच को सामने लाएंगे जिसका कि बाद में उन्होंने उल्लेख तक करना छोड़ दिया । बोफ़ोर्स के नाम का शोर मचाने वाले राजा मांडा ने बोफ़ोर्स सौदे का भांडा कभी नहीं फोड़ा । शायद इसलिए कि फोड़ने के लिए कोई भांडा था ही नहीं; वह सब सिर्फ़ अवाम को गुमराह करने की चाल थी, उसे चुनाव में ठगने के लिए बुना गया जाल था ।

आज आरक्षण और अगड़े-पिछड़े के नाम पर कभी एकजुट होकर आज़ादी की लड़ाई लड़ने वाले भारतीय समाज का मजबूत ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो चुका है । समाज इतने टुकड़ों में बंट चुका है कि हमारे देश के लिए एक राष्ट्र-राज्य की अवधारणा ही निरर्थक लगने लगी है । हमारे देश और समाज को जो अपूरणीय क्षति वी.पी. सिंह ने पहुँचाई, वह और किसी प्रधानमंत्री ने नहीं पहुँचाई । अब इस क्षति की कोई भरपाई संभवतः कभी नहीं हो सकेगी । मण्डल रिपोर्ट के द्वारा जातिगत आरक्षण का लाभ उठाने वाले समुदायों और उनका वोट-बैंक बनाकर सत्ता हथियाने वाले राजनेताओं ने भले ही वी.पी. सिंह की सराहना की हो लेकिन जनसामान्य की दृष्टि में वे भारत के सबसे अधिक घृणित प्रधानमंत्री हैं ।

वी.पी. सिंह का देहांत २७ नवंबर, २००८ को हुआ जब सम्पूर्ण राष्ट्र २६ नवंबर, २००८ को मुंबई पर कसाब और उसके साथियों द्वारा किए गए आतंकी हमले के सदमे से जड़ था । ऐसे में किसी ने भी उनकी मृत्यु पर विशेष ध्यान नहीं दिया । उनके घिसे हुए चेले शरद यादव ने अवश्य उन्हें श्रद्धांजलि देते हुए एक छोटा-सा लेख लिखा था लेकिन समाचार-पत्रों तथा अन्य संचार माध्यमों पर चूंकि उस समय मुंबई हमला ही छाया हुआ था, अतः उनके निधन की घटना लगभग उपेक्षित-सी ही रही । यह प्राकृतिक न्याय था, ख़ुदाई इंसाफ़ था, ईश्वर द्वारा वी.पी. सिंह को दिया गया दंड था ।

© Copyrights reserved

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published. Required fields are marked *

    CAPTCHA
    Refresh