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भारत धर्मप्राण देश है । ईश्वर की उपासना लोग अपने-अपने ढंग से करते हैं । हिन्दू धर्म में जहाँ तैंतीस करोड़ देवी-देवता बताए गए हैं, वहीं निर्गुणोपासना अथवा निर्विकार ब्रह्म की भक्ति का मार्ग भी उपस्थित है । जाकी रही भावना जैसी, प्रभु मूरत देखी तिन तैसी । हमारा संविधान धार्मिक स्वतन्त्रता प्रदान करता है । जिसे जिस रूप में भी अपने ईश्वर की आराधना करनी हो, करे । चाहे भगवान की पूजा हो या अल्लाह की इबादत या गॉड की प्रेयर या वाहेगुरु की अरदास; प्रत्येक भारतीय अपने मन और अपनी आस्था के अनुरूप कर सकता है । भारतीय संविधान प्रत्येक नागरिक से यह अपेक्षा करता है कि वह दूसरों की आस्था का सम्मान करे । मैं एक ऐसा ही नागरिक हूँ । मेरा यह मानना है कि सच्ची धार्मिकता मनुष्यता और उससे भी बढ़ाकर प्राणिमात्र के प्रति संवेदनशीलता में ही निहित है । ईश्वरोपासना उसी की सार्थक है जिसके पास एक संवेदनशील हृदय है ।
मैं विगत छह-सात वर्षों से भेल में अपनी नौकरी के चलते हैदराबाद में रह रहा हूँ । भेल द्वारा अपने कर्मचारियों द्वारा निर्मित टाउनशिप में ही मेरा निवास है । इस टाउनशिप के पीछे की ओर ओल्ड एम॰आई॰जी॰ नामक आवासीय क्षेत्र है जिसमें रामालयम नामक एक मंदिर है । मंदिर मूल रूप से राम-सीता-लक्ष्मण-हनुमान का है लेकिन उसके बाहरी भाग में शिवलिंग भी स्थापित है । अपने धार्मिक स्वभाव के चलते मैं यथासंभव नियमित रूप से रामालयम जाता हूँ । जो विशिष्ट और असाधारण तथ्य मैं पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ, वह यह है कि इस हिन्दू मंदिर के ठीक बराबर में ही एक कैथोलिक गिरजाघर है और उसके ठीक बराबर में ही एक मस्जिद है (कृपया ऊपर दिया गया चित्र देखें) । इस तरह हिन्दू, ईसाई और मुस्लिम तीन बड़े धर्मों के पूजागृह अगल-बगल में ही स्थित हैं । सुबह मंदिर में घंटियां बजती हैं और आरती की जाती है तो मस्जिद में अज़ान भी दी जाती है और गिरजाघर में प्रेयर भी सम्पन्न होती है । मंदिर में आरती संध्या को भी होती है और रविवार को प्रायः कोई-न-कोई विशेष पूजा या हवन होता है । शुक्रवार की दोपहर में निकट रहने वाले मुस्लिम भाइयों का समूह मस्जिद में नमाज के लिए एकत्र होता है । प्रत्येक रविवार की सुबह गिरजाघर में अलग-अलग भाषाओं में प्रेयर होती है जिसमें निकट रहने वाले ईसाई बंधु अपनी भाषाजनित सुविधा के अनुरूप आते हैं । जब से मैं यहाँ रह रहा हूँ, मैंने कभी कोई धार्मिक विवाद या कहासुनी होते नहीं देखी । ईद के दिन नमाज के बाद मुस्लिम भाइयों को उनके ग़ैर-मुस्लिम मित्र भी ईद की मुबारकबाद यहाँ देते हैं तो ईस्टर और क्रिसमस के अवसरों पर ईसाई बंधुओं को उनके ग़ैर-ईसाई मित्रों की भी बधाइयां यहाँ मिलती हैं । हिन्दू समाज को भी विभिन्न हिन्दू त्योहारों की शुभकामनाएं मुस्लिम और ईसाई मित्रगणों से मिलती हैं । सांप्रदायिक सद्भाव का यह अनुपम उदाहरण है । यह महानता है हमारे भारत देश की जिसे देश की अधिसंख्य जनता ने सदा से हृदयंगम करके रखा है ।
लेकिन अपने वैविध्यपूर्ण अनुभवों और अपनी नैसर्गिक संवेदनशीलता के कारण मैंने जो निष्कर्ष निकाला है और जिसे मैंने अपने जीवन में उतारा है, वह यह है कि सच्चे धार्मिक व्यक्ति की धार्मिकता उसके मन में ही होती है । उसका ईश्वर उसके हृदय में ही निवास करता है । मनुष्य का निर्मल हृदय ही उसका मंदिर है, मस्जिद है, गिरजा है, गुरुद्वारा है । कस्तूरी-मृग की भाँति ईश्वर को बाह्य संसार में ढूंढने से कोई लाभ नहीं । यदि आपने सद्गुणों को अपनाया है तो वह आपके भीतर ही उपस्थित है । अतः उसे पाने के लिए कहीं भटकने की आवश्यकता नहीं ।
मैं नाम नहीं लेना चाहूंगा लेकिन पढ़ने वाले समझ सकते हैं कि हमारे देश में ऐसे अनेक धार्मिक स्थल हैं, जहाँ भक्त की सच्ची आस्था को नहीं, धन को महत्व दिया जाता है । कुछ ऐसे हाई प्रोफ़ाइल मंदिरों में जाकर मुझे जो कटु अनुभव हुए और जो कुछ मैं कतिपय धार्मिक स्थलों की समृद्धि के विषय में और धन के व्यय के आधार पर भक्तों में विभेद करने के विषय में जान पाया हूँ, उससे मैं इस निष्कर्ष पर पहुँचा हूँ कि ऐसे स्थलों पर जाना ही व्यर्थ है जहाँ आपकी श्रद्धा से अधिक आपकी ज़ेब की महत्ता हो । आपका मन सच्चा है तो अपने घर में ही ईश्वर के प्रतीक के समक्ष माथा झुकाइए या अपने निकट के किसी छोटे-से पूजास्थल पर (जहाँ भीड़भाड़ और शोरगुल न होता हो) जाकर ईश्वर को अपने आसपास अनुभव कीजिए । ऐसा करना धन और समय का अपव्यय करके दूरस्थ धर्मस्थलों पर जाने से बेहतर है ।
पंद्रह-सोलह वर्ष पूर्व जिन दिनों मैं तारापुर परमाणु बिजलीघर में नौकरी करता था, मैं सपरिवार (पत्नी और छोटी-सी पुत्री) अपने अभिन्न मित्र श्री राजेन्द्रकुमार टांक और उनके परिवार के साथ जनवरी 2001 में शिर्डी गया और उस यात्रा के उपरांत मेरे मन में साईंबाबा के प्रति कुछ आस्था उमड़ पड़ी । उस यात्रा के कुछ दिनों के भीतर ही मेरा स्थानांतरण कोटा के निकट रावतभाटा नामक स्थान पर स्थित राजस्थान परमाणु बिजलीघर में हो गया । विकिरण के कारण वहाँ आवासीय क्षेत्र बिजलीघर से कई किलोमीटर दूर रखा गया है । एक दिन जब मैं यूँ ही स्कूटर लेकर बिजलीघर और कॉलोनी के बीच के उस क्षेत्र को टटोल रहा था तो मुझे उस पठारी क्षेत्र की ऊंची-नीची और नागिन की तरह बलखाती सड़क अकस्मात ही एक छोटे-से सफ़ेद रंग के मंदिर तक ले गई । मैंने पाया कि वह मंदिर बिजलीघर और आवासीय क्षेत्र दोनों से ही लगभग समान दूरी पर था और वह साईंबाबा का मंदिर था । मंदिर का मुख्य द्वार बंद था लेकिन निकट एक छोटा झूलता हुआ द्वार भी था जिससे मैं भीतर गया । मैंने देखा कि संगमरमर की बनी और पीत-वस्त्र पहनी हुई साईंबाबा की प्रतिमा एक चबूतरे पर बने छोटे-से पूजाघर के भीतर थी, प्रतिमा के सामने दिया जल रहा था लेकिन बाहर एक लोहे का जंगला था जिस पर ताला लटका हुआ था जो इस बात की ओर संकेत करता था कि वह स्थान किसी की निजी संपत्ति था (पूजागृह का चित्र कृपया ऊपर देखें)। वह छोटा-सा स्थान साफ़-सुथरा था, ऊपर छत थी, पूजागृह के बाहर परिक्रमा थी और बाहर आगंतुकों के बैठने के लिए बेंचें भी थीं । चबूतरे के निकट के कच्चे क्षेत्र में एक छोटी-सी पानी की टंकी और तुलसी का पौधा भी था । निकट ही एक दूसरे चबूतरे पर एक हनुमान मंदिर भी था जिसकी उस समय की स्थिति बता रही थी कि वह अभी निर्माणाधीन था ।
मैंने वहाँ आधा-पौन घंटा बिताया और उल्लेखनीय तथ्य यह है कि मुझे वहाँ असीम शांति प्राप्त हुई । अपना स्कूटर दौड़ाते हुए अणु किरण कॉलोनी में स्थित अपने क्वार्टर की ओर लौटते समय मैंने निश्चय किया कि अब मैं वहाँ नियमित रूप से आता रहूंगा । और सचमुच ही मैंने नियमित रूप से उस मंदिर में जाना आरंभ कर दिया । कभी-कभी तो मैं दिन में दो बार भी वहाँ गया (प्रातः और सायं) । जो मानसिक शांति मुझे उस छोटे-से मंदिर में सदा निःशुल्क प्राप्त हुई, वह भारीभरकम व्यय करके की गई प्रसिद्ध मंदिरों की यात्राओं से कभी प्राप्त नहीं हुई । मैंने वहाँ सपरिवार भी जाना आरंभ कर दिया । कई बार अच्छे मौसम में मैं, मेरी पत्नी और मेरी नन्ही बच्ची वहाँ पीने का पानी और थर्मस में चाय लेकर चले जाते थे और ईश्वर के चरणों में बैठकर ही एक छोटी-सी पारिवारिक पिकनिक कर लेते थे । कुछ समय के उपरांत 2003 में मेरे यहाँ पुत्र का जन्म हुआ । पुत्र के कुछ बड़ा हो चुकने के उपरांत वह भी अपने माता-पिता और बहन के साथ वहाँ जाने लगा । उसे भी वह स्थान बहुत भाया । शांति के साथ-साथ और जो वस्तुएं हमें वहाँ निःशुल्क प्राप्त होती थीं, वे थीं शीतल वायु और तन-मन को प्रफुल्ल कर देने वाला प्राकृतिक वातावरण । रात्रि के समय वहाँ जाने पर ऊपर आकाश में तारों को या चन्द्रमा को तथा नीचे रावतभाटा कस्बे की रोशनियों को देखने का आनंद भी अद्भुत था (वह मंदिर ऊंचाई पर स्थित था जबकि कस्बा नीचाई पर था) । आज भी वहाँ बिताए गए समय की मधुर स्मृतियां हमारे साथ हैं ।
मेरे लिए तो वह लगभग अनजाना-सा छोटा मंदिर ही संसार का सबसे अधिक शांतिपूर्ण स्थान सिद्ध हुआ । इसलिए धीरे-धीरे मैंने समझ लिया कि सन्मार्ग पर चलो तो ईश्वर कहीं और नहीं, अपने भीतर ही है और तनमन को शांति छोटे लेकिन भीड़भाड़ तथा शोर से रहित स्थानों पर ही मिलती है, भीड़भरे प्रसिद्ध धार्मिक स्थलों पर नहीं । जहाँ मान और पहचान धन को मिले, मन को नहीं; वहाँ क्या जाना ? और ईश्वर को सच्चे अर्थों में वही समझ सकता है, जो उसके द्वारा सृजित प्राणियों को उचित मान दे; उनके जीवन, आदर-सम्मान और भावनाओं का मूल्य समझे । जो ख़ुदा के बंदों की कद्र न कर सके, वो ख़ुदा के नज़दीक कैसे जा सकता है ? जिसके मन में प्राणिमात्र के लिए करुणा हो, ममत्व हो; जिसके लिए सद्गुणों का मूल्य धन, अधिकार और वैभव से अधिक हो, जो सत्य और न्याय जैसे सनातन मूल्यों को ईश्वर का वरदान मानकर उन्हें महत्व देता हो; उसके लिए तो उसका हृदय ही सबसे बड़ा तीर्थ है क्योंकि मन चंगा तो कठौती में गंगा ।
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