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आजकल हमारे देश में विदेशी लेखकों द्वारा लिखे गए थ्रिलर उपन्यासों का बाज़ार गर्म है । जो भारतीय लेखक भारतीय भाषाओं में ऐसे कथानक भारतीय पाठकों को परोस रहे हैं, उनका लेखन भी मुख्यतः विदेशी लेखन से ही प्रेरित लगता है । ऐसे में यदि कोई भारतीय लेखक केवल भारत में उपस्थित वास्तविकताओं के आधार पर पूर्णतः मौलिक कथानक रचता है तो वह निस्संदेह अभिनंदन का पात्र है । ऐसा ही एक विशुद्ध मौलिक एवं अत्यंत प्रभावशाली प्रयास नवोदित हिन्दी उपन्यासकार रमाकांत मिश्र ने किया है जो हिन्दी के पाठक वर्ग के लिए एक ताज़ा हवा के झोंके के सदृश है । उपन्यास का शीर्षक है – ‘सिंह मर्डर केस’ । पाठक के हृदय के तल को स्पर्श कर लेने वाला यह उपन्यास सामाजिक कथानकों को पढ़ने में रुचि रखने वालों तथा रहस्य-रोमांच के शौकीनों, दोनों ही पाठक-वर्गों की पसंद की कसौटी पर खरा उतरता है ।
अपने शीर्षक से यह कोई हलका-फुलका और तात्कालिक मनोरंजन देने वाला उपन्यास लगता है लेकिन वस्तुतः यह उपन्यास भारतीय पुलिस और न्याय व्यवस्था की सूक्ष्मता और निष्पक्षता से पड़ताल करता है । उपन्यास का आरंभ लखनऊ में एक पुलिस उप अधीक्षक प्रशांत सिंह के पुत्र समर्थ सिंह की उसके विवाह समारोह के दौरान ही हुई हत्या से होता है जब एक पजेरो गाड़ी उसे कुचल डालती है । जब पुलिस विभाग अपने ही एक वरिष्ठ अधिकारी के पुत्र की हत्या के मामले को सुलझाने में विफल रहता है तो यह मामला केंद्रीय जाँच ब्यूरो के उच्चाधिकारी मदन मिश्र के सुपुर्द कर दिया जाता है । मदन मिश्र जो कि एक अत्यंत कार्यकुशल एवं सत्यनिष्ठ अधिकारी हैं, इस मामले की छानबीन करते हैं तो इस हत्या से पहले भी और इस हत्या के बाद भी हुई पुलिसियों की हत्याओं का एक ऐसा अजीबोगरीब सिलसिला उनके सामने आता है कि हत्यारे तक पहुँचने में उन्हें ख़ासी मशक़्क़त करनी पड़ती है । और अंत में हत्यारे को गिरफ़्तार कर लेने के बाद भी वे समझ जाते हैं कि उन्होंने उसे गिरफ़्तार नहीं किया है जिसकी वे तलाश कर रहे थे ।
अपने उपन्यास को एक रहस्य-कथा का जामा पहना रहे रमाकांत मिश्र का यह प्रयास उनकी मौलिक सूझबूझ और प्रतिभा को ही रेखांकित नहीं करता बल्कि उत्तर भारत में चल रही पुलिस-व्यवस्था की विडंबनाओं के उनके गहन ज्ञान को भी प्रतिबिम्बित करता है । उपन्यास का शीर्षक ‘सिंह मर्डर केस’ रखने का संभवतः यही कारण है कि कथानक का मूल बिन्दु समर्थ सिंह नामक व्यक्ति की हत्या है, अन्यथा यह एक रहस्य-कथा कम और एक सामाजिक उपन्यास अधिक है जो भारतीय पुलिस व्यवस्था की सड़ांध को उजागर करता है । भारतीय पुलिस के वरिष्ठ अधिकारी चाहे जो कह लें और प्रैस के सामने चाहे जैसी डींगें हाँक लें, उनके अधीन चलने वाले थानों और चौकियों का पीड़ादायक और लज्जास्पद सत्य वही है जिसे रमाकांत मिश्र ने पूरी निर्भयता और वस्तुपरकता के साथ पाठक वर्ग के समक्ष रख दिया है । और सत्य सदा सत्य ही रहता है चाहे उसे कोई स्वीकार करे या देखकर भी अनदेखा करने का बहाना करे । आँखें मूंद लेने से सच्चाई लुप्त नहीं हो जाती ।
महिलाओं के प्रति यौन अपराध रोकने की बातें चाहे जितनी हों और होहल्ला चाहे जितना मचा लिया जाए, इस दिशा में सार्थक प्रयासों का प्रायः अभाव ही रहता है । लेकिन इस संदर्भ में जो सबसे भयावह वास्तविकता है, वह है कानून और व्यवस्था के रक्षक माने जाने वाले पुलिसियों द्वारा ही ऐसे अपराधों का किया जाना और उससे भी बड़ी बात यह कि थानों और चौकियों के भीतर किया जाना । खेद का विषय है कि भारतीय पुलिस भ्रष्ट और निकम्मे पुलिसियों से ही नहीं वरन लम्पट और दुराचारी पुलिसियों से भी भरी पड़ी है । न जाने कितनी ही सती नारियों ने ऐसे वर्दी वाले गुंडों के हाथों अपना सतीत्व खोया है । न जाने ऐसी कितनी ही अबलाओं की आवाज़ें थानों और चौकियों की बेरहम चारदीवारियों में घुटकर रह गई हैं । भारतीय पुलिस के पास ऐसी अंधी ताक़त होती है कि ऐसे जघन्य अपराध करने के बाद भी अधिकतर मामलों में अपराधियों का कुछ नहीं बिगड़ता । बल्कि अपनी खाल बचाने के लिए वे निर्दोषों और यथासंभव ऐसी पीड़िताओं के परिवारों के पुरुषों को ही फ़र्ज़ी मामलों में फंसाकर अदालतों से सज़ा दिलवा देते हैं । भारतीय न्यायपालिका की निष्पक्षता और कार्यकुशलता केवल एक मिथक है जिसकी सच्चाई भुक्तभोगी ही बेहतर जानते हैं । तो ऐसे में कोई मज़लूम क्या करे जब इंसाफ़ की गुहार सुनने वाला कोई मौजूद न हो ? जहाँ हाकिम ही बेदर्द और ज़ालिमों की ओर हों, वहाँ ज़ुल्म के खिलाफ़ फ़रियाद किससे की जाए ? सदियों से ऐसे मज़लूम अंधे कानून को अपने हाथ में लेकर ख़ुद ही अपने ऊपर और अपनों के ऊपर हुए ज़ुल्म-ओ-सितम का हिसाब साफ़ करते आए हैं । न जाने ऐसी कितनी सच्ची दास्तानें कानून की मिसिलों में, किस्से-कहानियों में और लोगों की यादों में दफ़न हैं । ‘सिंह मर्डर केस’ भी ऐसी ही एक दास्तान सुनाता है । दास्तान ज़ालिमों के ज़ुल्म की ! दास्तान मज़लूम के इंसाफ़ की !
विषय-वस्तु पर एक सरसरी निगाह डालने पर ‘सिंह मर्डर केस’ एक रूटीन कथानक लगता है लेकिन ऐसा है नहीं । ऐसा प्रतीत होता है कि रमाकांत मिश्र ने भारतीय पुलिस के चरित्र और कार्यप्रणाली दोनों को ही निकट से देखा है और उनका गहन अध्ययन किया है । इसीलिए कथानक के पात्र और घटनाएं दोनों ही काल्पनिक होकर भी पाठक को वास्तविक लगते हैं । लेखक ने कथानक के परिवेश के छोटे-से-छोटे पक्ष पर पूरा ध्यान दिया है और कथानक को वास्तविक जैसा बनाकर प्रस्तुत करते हुए भी रोचकता के तत्व को आद्योपांत अक्षुण्ण बनाए रखा है जिससे पाठक कहीं पर भी ऊब का अनुभव नहीं करता । लेखक ने कहानी के रहस्यात्मक पक्ष को कम और भावनात्मक पक्ष को अधिक महत्व दिया है । पीड़ित पात्रों की व्यथा और उसकी अभिव्यक्ति अनेक स्थलों पर बरबस ही पाठक के दिल को छू लेती हैं । लेखक की लेखनी ने जादूभरे शब्दों का ऐसा तानाबाना बुना है कि पाठक का पीड़ित पात्रों से तादात्म्य स्वाभाविक रूप से स्थापित हो जाता है और वह उनकी पीड़ा को अपने भीतर अनुभव करते हुए अत्याचारियों के विनाश की कामना करने लगता है । लेखक ने पीड़ित द्वारा कानून को अपने हाथ में लिए जाने को इस प्रकार से रूपायित किया है कि वह न्याय ही दृष्टिगोचर होता है, प्रतिशोध नहीं । लेखक ने फ़्लैश-बैक और कट टू तकनीकों का उपयोग अत्यंत कौशलपूर्वक करते हुए उपन्यास को ऐसा शिल्प दिया है कि पढ़ने वाला शब्दों के साथ बंधकर रह जाता है और कहानी के पात्र मानो उसके समक्ष सजीव हो उठते हैं । राष्ट्रभाषा पर मजबूत पकड़ रखने वाले लेखक द्वारा अपनी बात कहने के लिए किए गए शब्दों का ही नहीं, लोकोक्तियों का चयन भी सराहनीय है । उपन्यास को एक भावुक कर देने वाले दृश्य के साथ सकारात्मक बिन्दु पर समाप्त किया गया है जो कि लेखक की सुलझी हुई मानसिकता का ही प्रमाण है ।
आज जब चेतन भगत जैसे लेखक अपनी साधारण अंग्रेज़ी छांटते हुए मामूली और बासी कथानकों को सुशिक्षित भारतीयों को परोसकर चाँदी काट रहे हैं तो रमाकांत मिश्र द्वारा अत्यंत परिश्रमपूर्वक लिखा गया यह हिन्दी उपन्यास अपनी अलग पहचान बनाते हुए राष्ट्रभाषा हिन्दी के सुधी पाठकों का ध्यानाकर्षण माँगता है । यह उपन्यास ई-पुस्तक के रूप में पोथी डॉट कॉम पर प्रस्तुत किया गया है और इसे इलैक्ट्रॉनिक रूप में पढ़ने के उपरांत मेरे हृदय के तल से लेखक के लिए यही सदिच्छा उभरी है कि यह सर्वथा मौलिक एवं अत्यंत प्रशंसनीय उपन्यास अतिशीघ्र ही कागज़ पर पुस्तक-स्वरूप में प्रकाशित होकर अधिकाधिक पाठकों तक पहुँचे तथा हिन्दी का पाठक और आलोचक जगत यह देख सके कि भारतीय लेखन प्रतिभाएं विदेशी लेखकों से किसी भी तरह कम नहीं हैं, बस उन्हें प्रकाश में लाए जाने की आवश्यकता है ।
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