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बचपन से जिस शौक ने मुझे जकड़ लिया था, वह था विभिन्न प्रकार की पुस्तकें पढ़ना । मैं शब्दों से भरी पुस्तकें तो पढ़ता ही था, साथ ही चित्रकथाओं का आकर्षण भी कुछ कम नहीं था । हम अपने घर पर विभिन्न बाल पत्रिकाएँ लिया करते थे जिनमें से ‘पराग’ एक थी । मुझे याद है कि किसी एक वर्ष में ‘पराग’ ने अपना एक अंक कॉमिक विशेषांक के रूप में निकाला था । उस अंक में कॉमिक्स के बारे में उपयोगी और मनोरंजक जानकारियों के साथ-साथ ढेरों कॉमिक्स भी दिए गए थे । भारतीय कॉमिक्स के सरताज जनाब प्राण साहब और उनकी धर्मपत्नी श्रीमती आशा प्राण के लेख थे उसमें । ‘ऑपरेशन 27′ के नाम से एक सैन्य अभियान की चित्रकथा भी थी ।
‘चीकू’ नाम के एक बुद्धिमान खरगोश का सृजन किया प्राण साहब ने जिसके कारनामे बच्चों की पाक्षिक पत्रिका – ‘चम्पक’ में बरसों तक छपे । किन्हीं कारोबारी वजूहात के चलते 1980 में जब प्राण साहब ‘चम्पक’ से अलग हो गए तो इस प्यारे-से खरगोश का चेहरा और कारनामे बदल गए । उसके बाद कोई ‘दास’ साहब ‘चीकू’ के कारनामे पेश करने लगे । ‘चम्पक’ में ‘चीकू’ के अलावा एक चूहे ‘चुंचू’ के कारनामे भी आते थे और कभी-कभी किन्हीं बोरगाओंकर साहब द्वारा रचित ‘पिंटू और मोती’ भी आया करते थे जिनमें पिंटू नाम का एक लड़का और मोती नाम का एक कुत्ता होता था । प्राण दिल्ली प्रैस की अन्य पत्रिकाओं से भी लंबे समय तक जुड़े रहे । उनके द्वारा रचित एक भारतीय गृहिणी (नाम – शीला) के किस्से – ‘श्रीमतीजी’ के नाम से दिल्ली प्रैस की पाक्षिक पत्रिका ‘सरिता’ में बरसों छपे । मगर यहाँ भी वही हुआ जो ‘चीकू’ के मामले में हुआ था । अचानक ‘श्रीमतीजी’ का चेहरा बदल गया और प्राण साहब की जगह आलोक जी इस चित्रकथा का सृजन करने लगे । बाद में प्राण साहब की यह चित्रकथा एक अन्य पत्रिका ‘मनोरमा’ में भी कुछ समय तक छपी । प्राण साहब ने यूं तो ढेरों लोकप्रिय कॉमिक्स का सृजन किया मगर उनमें से यादगार रहे ‘रमन’, ‘बिल्लू’, ‘पिंकी’ और ‘चाचा चौधरी’ । हास्य पत्रिका ‘लोटपोट’ चाचा चौधरी के बिना पूरी हो ही नहीं हो सकती थी । ‘चाचा चौधरी’ और जूपिटर से आया उनका भीमकाय साथी ‘साबू’ दिलों में कुछ ऐसे समाए कि बाद में इन पात्रों को लेकर ‘सहारा टीवी’ पर धारावाहिक बनाया गया ।
प्राण का मानस-पुत्र ‘बिल्लू’ और मानस-पुत्री ‘पिंकी’ बेहद लोकप्रिय रहे । इनके साथ इनके विभिन्न साथी – तोशी, गब्दू, बजरंगी पहलवान, छक्कन, जोज़ी, ताऊजी, गोबर गणेश, चंपू, भीखू, शांतू आदि भी पाठकों के दिलों में घर कर गए थे । बिल्लू की लोकप्रियता का आलम यह था कि महान हास्य कवि काका हाथरसी जी ने बिल्लू और उसके साथियों को लेकर एक कविता रची जो कि पराग में प्राण साहब के चित्रों के साथ छपी । काकाजी ने उस कविता में बिल्लू के रचयिता प्राण से लेकर ‘पराग’ के संपादक कन्हैयालाल नन्दन जी तक को लपेट लिया था । कविता की शुरुआती पंक्तियाँ इस प्रकार थीं –
बिल्लू बोला प्राण से – पापाजी श्रीमान
बजरंगी की जंग से संकट में हैं प्राण
संकट में हैं प्राण, हमारी साथी तोशी
है निर्दोष किन्तु बतलाते उसको दोषी
गब्दू भैया को भी रोज़ तंग करते हैं
परेशान हैं सब बालक, आहें भरते हैं
अखबारों तथा पत्रिकाओं के माध्यम से ब्लौंडी, ब्रिंगिंग अप फादर, मट और जेफ़, बॉर्न लूज़र, गारफ़ील्ड, द विज़ार्ड ऑव इड, बिटवीन फ़्रेंड्स, एनिमल क्रैकर्स, आर्ची, डेनिस द मेनिस आदि विदेशी चरित्रों ने बरसों तक पाठकों का दिल लुभाया और इनमें से कई आज भी नज़र आते हैं । मगर भारतवासी होने के नाते हमें तो भारतीय चरित्रों से ही ज़्यादा लगाव था । इसीलिए जगजीतसिंह राणा के छोटे-छोटे व्यंग्यचित्र आज भी भुलाए नहीं भूलते जिनमें कोई स्थाई पात्र नहीं होता था । ‘टाइम्स ऑव इंडिया’ में दशकों तक प्रतिदिन छपने वाला आर॰ के॰ लक्ष्मण साहब का युग-प्रवर्तक ‘कॉमन मैन’, ‘राजस्थान पत्रिका’ में त्रिशंकु के दैनिक व्यंग्यचित्र और मासिक पत्रिका ‘पराग’ में नियमित रूप से आने वाले शेहाब के ‘छोटू और लंबू’ आज भी दिलों पर छाए हुए हैं । ‘सरिता’ में बरसों से अपनी उपस्थिति दर्ज़ करा रहा एक शरारती बच्चा – ‘ननमुन’ आज भी लोकप्रिय है । ‘बाल-भारती’ पत्रिका में बरसों तक नज़र आया जादुई पूँछ वाला बंदर ‘कपीश’ और उसके साथी जानवर पिंटू हिरण, मोटू खरगोश, पीलू बाघ, केशा शेर, सिगाल सियार, बाबूचा भालू और एक शिकारी इंसान – ‘दोपाया’ अनंत पै॰ और मोहनदास नाम की कार्टूनिस्ट जोड़ी के दिमाग का कमाल थे । इसी जोड़ी ने दो जुड़वां बच्चों – रामू और शामू के कारनामे भी बरसों तक प्रस्तुत किए जो कि राजस्थान पत्रिका में साप्ताहिक रूप से छपते थे । लेकिन अंकल पाई के नाम से प्रसिद्ध स्वर्गीय अनंत पै॰ का सबसे बड़ा योगदान अमर चित्रकथाओं के रूप में रहा जिन्होंने भारतीय पौराणिक कथाओं की धरोहर को भारतीय बालकों तक पहुँचाया ।
हास्य पत्रिकाओं – ‘लोटपोट’, ‘दीवाना’ और ‘मधु मुस्कान’ की चर्चा के बिना चित्रकथाओं का यह सफ़रनामा पूरा हो ही नहीं सकता । ‘लोटपोट’ में चाचा चौधरी के अलावा मोटू-पतलू और उनके विभिन्न साथी – डॉक्टर झटका, मास्टर घसीटाराम, पपीताराम, चेलाराम आदि मिल-जुलकर हँसाने का काम किया करते थे । ये ही पात्र ‘दीवाना’ में भी आते थे मगर ‘दीवाना’ केवल हास्य प्रस्तुत करने का ही नहीं बल्कि भारत की राजनीतिक स्थिति पर ज़ोरदार व्यंग्य कसने का काम भी इन्हीं पात्रों के माध्यम से करता था । मोटू-पतलू की कॉमिक मूलतः कृपा शंकर भारद्वाज साहब के दिमाग की उपज थी । ‘दीवाना’ फ़ार्मूलाबद्ध भारतीय फ़िल्मों पर भी जमकर प्रहार किया करता था और हर अंक में किसी-ना-किसी फ़िल्म की पैरोडी प्रस्तुत की जाती थी । फ़िल्मी रिपोर्टर ‘कलमदास’ हर बार किसी-ना-किसी सितारे का साक्षात्कार प्रस्तुत करते थे और ख़ूब हँसाते थे । ‘दीवाना’ में ‘सिलबिल-पिलपिल’ (उनके साथ ‘गरीबचन्द’ नाम का एक चूहा भी होता था) भी जमकर हँसाया करते थे । क्रिकेट के लिए दीवानगी हमारे देश में उस ज़माने में भी कम नहीं थी और ये चित्रकथाएं क्रिकेट की उस दीवानगी पर भी व्यंग्य कसा करती थीं । ‘लोटपोट’ में पी॰ डी॰ चोपड़ा द्वारा सृजित एक शरारती बालक ‘नटखट नीटू’ भी आया करता था । चोपड़ा साहब ने ‘नटखट नीटू’ के अलावा एक शरारती भाई-बहन की जोड़ी ‘चीटू-नीटू’ (जिसके कारनामे मासिक बाल पत्रिका ‘नन्दन’ में छपते थे), ‘फ़िल्म हीरोइन छाया’, ‘टिन्नी बिटिया’, ‘चीनी’ आदि मनोरंजक चरित्रों का भी सृजन किया जो समाचार-पत्रों और पत्रिकाओं दोनों में ही नज़र आ जाते थे । चित्रकथाओं को लोकप्रिय बनाने में ‘टिंकल’ पत्रिका का योगदान भी कम नहीं रहा ।
इन पत्रिकाओं में सबसे लंबे समय तक टिकने वाली पत्रिका रही ‘मधु मुस्कान’ जो अभी कुछ वर्षों पूर्व तक अस्तित्व में थी । ‘मधु मुस्कान’ के ‘सुस्तराम-चुस्तराम’, ‘पोपट-चौपट’, ‘भूतनाथ और जादुई तूलिका’, ‘चक्रम-चिरकुट’, ‘डैडी जी’ आदि हँसाने में किसी से कम नहीं थे । एक और चित्रकथा आती थी ‘मधु-मुस्कान’ में – ‘बबलू’ लेकिन उसका उल्लेख मैं आगे अलग से करूंगा । यह पत्रिका मुख्यतः एच॰ आई॰ पाशा तथा हरीश एम॰ सूदन के संयुक्त प्रयास का फल थी । जगदीश जी, माणिक जी आदि भी इसमें नियमित योगदान दिया करते थे ।
‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में हर सप्ताह नज़र आती थी एक साधारण मध्यमवर्गीय परिवार के दैनिक जीवन की कथा – ‘मुसीबत है’ जबकि ‘धर्मयुग’ की तो आबिद सुरती के ‘ढब्बूजी’ के बिना कल्पना करना ही संभव नहीं था । मैं जब प्राथमिक कक्षाओं में था तो विद्यालय में हर शनिवार को होने वाली ‘बाल सभा’ में सुनाने के लिए ‘’ढब्बूजी’ का नवीनतम कारनामा याद कर के जाया करता था ।
जहाँ तक लंबी चित्रकथाओं का सवाल है, सबसे पहले तो मैं दैनिक समाचार-पत्र ‘राजस्थान पत्रिका’ में बरसों तक छपने वाली चित्रकथाओं को याद करता हूँ जिन्हें सृजित करते हुए अनंत कुशवाहा की तूलिका दशकों तक थकी नहीं । इनमें से ज़्यादातर राजस्थान की मिट्टी से जुड़ी भावभीनी लोक-कथाएं होती थीं – आँसू निकाल देने वालीं, दिल की गहराइयों में समा जाने वालीं गाथाएं । कुशवाहा जी ने ही पर्वत-कन्या – ‘शैलबाला’ के साहसिक कारनामे भी प्रस्तुत किए । ‘पराग’ में बरसों तक ‘छोटू और लंबू’ तथा ‘बिल्लू’ के साथ-साथ ‘शुजा’ नाम के एक वीर की सिलसिलेवार कहानी भी नज़र आई । ‘धर्मयुग’ में जिस पृष्ठ पर ‘ढब्बूजी’ को स्थान मिलता था, उसी पृष्ठ पर एक चित्रकथा भी धारावाहिक रूप से छपती थी । ‘कित्तूर की रानी चेन्नम्मा’, ‘पोरस और सिकंदर’, ‘लाचित बरफुकन’ तथा ‘अमर सिंह राठौर’ जैसी कथाएँ मैंने ‘धर्मयुग’ में ही पढ़ीं ।
विभिन्न समाचारपत्रों तथा पत्रिकाओं में ही मैंने अनेक भारतीय पौराणिक कथाएँ तथा भारतीय महाकाव्य – रामायण एवं महाभारत भी धारावाहिक रूप में पढ़े । ‘नटखट नीटू’, ‘टिन्नी बिटिया’ और ‘चीनी’ जैसे हँसाने वाले पात्रों को रचने वाले पी॰ डी॰ चोपड़ा ने सूर्यपुत्र कर्ण की सम्पूर्ण कथा को चित्रों के माध्यम से राजस्थान पत्रिका में धारावाहिक रूप में प्रस्तुत किया था जिसका अंत उन्होंने बड़े ही मार्मिक ढंग से लिखा था । ‘धर्मयुग’ ने भारतीय स्वाधीनता संग्राम के नायकों – बाघा जतीन, सूर्य सेन, चन्द्र शेखर आज़ाद, रास बिहारी बोस, लाल बहादुर शास्त्री आदि की जीवन-गाथाएँ भी चित्रकथा के रूप में धारावाहिक रूप से छापीं । यहाँ तक कि लोकनायक जयप्रकाश नारायण की भी सम्पूर्ण जीवन-कथा (श्रीमती इन्दिरा गांधी की सरकार से उनके टकराव, देश में आपातकाल की घोषणा और 1977 के चुनाव में जनता पार्टी की विजय आदि को सम्मिलित करते हुए) चित्रकथा के रूप में धर्मयुग में प्रस्तुत की गई ।
मुझे जासूसी कहानियों के सम्मोहन ने शुरू से ही जकड़ लिया था । इसीलिए ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में छपने वाले ‘इंस्पेक्टर गरूड़’ (पहले वे ‘इंस्पेक्टर ईगल’ के नाम से आते थे) के दिलचस्प जासूसी कारनामे मुझे आज तक याद हैं जिनमें उनका साथ बलबीर नाम का एक विदूषकनुमा सिपाही देता था और कहानी का स्तर बहुत उच्च होता था – शरलॉक होम्स के कारनामों से तुलनीय । ‘राजस्थान पत्रिका’ में जगजीत उप्पल और प्रदीप साठे ने मिलकर बरसों तक ‘गुप्तचर विक्रम’ के कारनामे धारावाहिक रूप से प्रस्तुत किए जिन्हें पढ़ने के लिए मैं ‘राजस्थान पत्रिका’ के रविवारीय संस्करण की पूरे सप्ताह प्रतीक्षा करता था । ‘राजस्थान पत्रिका’ में ही मैंने एक कारनामा ‘इंस्पेक्टर विक्रम’ का भी पढ़ा और शायद दो कारनामे ‘सीक्रेट एजेंट सूर्य किरण’ के भी पढ़े जिनमें सूर्य नाम के पुरुष और किरण नाम की स्त्री की जोड़ी देश के हित में जासूसी करती थी । दैनिक भास्कर समूह की पत्रिका – ‘बाल भास्कर’ में ‘गोपीचन्द जासूस’ नाम के पात्र के लघु जासूसी कारनामे भी बरसों आते रहे ।
मगर जो जासूस पात्र मेरे दिल में सदा के लिए जगह बना पाया उसका नाम था ‘बबलू’ जिसके कारनामे ‘मधु मुस्कान’ का नियमित आकर्षण थे । पहले वो एक छोटा बालक था, इसलिए चित्रकथा का नाम ‘नन्हा जासूस बबलू’ हुआ करता था । बाद में उसे कुछ बड़ा बताया गया तो ‘नन्हा जासूस’ शब्दों को हटाकर चित्रकथा को केवल ‘बबलू’ के नाम से दिया जाने लगा । ‘बबलू’ के जन्मदाता थे एच॰ आई॰ पाशा और इस चित्रकथा में भी लिए जाने वाले जासूसी कथानकों का स्तर बहुत अच्छा था ।
बहुत सी कॉमिक या कहिए कि चित्रकथाएँ पुस्तकाकार रूप में भी उपलब्ध होती थीं और पत्र-पत्रिकाओं में धारावाहिक रूप से भी नज़र आती थीं । इसमें सबसे पहला नाम है चलते-फिरते प्रेत के नाम से मशहूर ‘फैन्टम’ या ‘वेताल’ का । ली फॉक द्वारा रचित इस अमर चरित्र की कभी न ख़त्म होने वाली महागाथा – ‘जंगल शहर’ के नाम से ‘दीवाना’ में बरसों-बरस छपती रही । फैन्टम के साथ-साथ फ़्लैश गॉर्डन, मैनड्रेक जादूगर (साथ में ‘लोथार’ होता था), बज़ सायर, रिप किर्बी आदि भी सम्पूर्ण पुस्तक के रूप में भी और पत्र-पत्रिकाओं में स्ट्रिप के रूप में भी नियमित आया करते थे । इन्हीं का समकालीन था भारतीय नायक – बहादुर ।
भारतीय नायकों की परंपरा में एक नाम और आया – ‘महाबली शेरा’ जिसके इसी नाम के पहले कारनामे का दूसरा भाग जब छपा तो उसमें एक नया पात्र भी आया – ‘काला प्रेत’ और दूसरे भाग का नाम था – ‘महाबली शेरा और काला प्रेत’ । बाद में ‘काला प्रेत’ नाम के रहस्यमय पात्र की अपनी जीवन-गाथा को अलग से तीन भागों में प्रस्तुत किया गया – 1. काला प्रेत और देश के दुश्मन, 2. देशभक्त काला प्रेत, 3. काला प्रेत और ब्लैक क्रॉस । महाबली शेरा के भी कई कारनामे आए जिनमें से एक मुझे भुलाए नहीं भूलता जिसके पहले भाग का नाम था – ‘महाबली शेरा और खूनी हीरों का हार’ जबकि दूसरे भाग का नाम था – ‘कंगालू देवता का खज़ाना’ । इसी तरह काला प्रेत के भी कई और कारनामे स्वतंत्र रूप से प्रस्तुत किए गए ।
ये विभिन्न पुस्तकें ‘इंद्रजाल कॉमिक्स’ तथा ‘अमर चित्र कथा’ नाम के प्रकाशनों से निकला करती थीं जबकि ‘राज कॉमिक्स’ से ‘नागराज’, ‘शक्तिमान’ तथा उनके जैसे अन्य नायकों के एक्शन और तिलिस्म से भरपूर कारनामे निकल कर आया करते थे । इस संदर्भ में ‘डायमंड कॉमिक्स’ ने भी अपना भरपूर योगदान देते हुए कई भारतीय नायकों को चित्र-रूप में प्रस्तुत किया । ‘लंबू-मोटू’, ‘राजन-इक़बाल’, ‘चाचा-भतीजा’, ‘मामा-भांजा’, ‘कैप्टन व्योम’ और ‘फौलादी सिंह’ जैसे नायकों के कारनामों ने अस्सी के दशक में चित्रकथाओं के भारतीय बाज़ार को पाट दिया । सुपरमैन, बैटमैन, स्पाइडरमैन आदि भी साथ लगे हुए थे ।
वो कॉमिक्स तथा पॉकेट बुक्स का स्वर्णकाल था जिसमें केवल हिन्दी और अंग्रेज़ी ही नहीं, प्रांतीय भाषाओं में भी कॉमिक्स खूब छपे और उन्होने बालकों के बचपन में अपनी जगह बनाई । जब तक मेरी पुत्री पढ़ने-लिखने लगी, वह दौर चला गया था मगर प्राण साहब की मानस-पुत्री ‘पिंकी’ की पुस्तकाकार में उपलब्ध कथाओं ने उसका मन भी जीता जबकि ‘चाचा चौधरी’ सहारा चैनल के धारावाहिक के माध्यम से रघुवीर यादव के रूप में नई पीढ़ी तक पहुँचे ।
आज केबल टीवी और इंटरनेट की दुनिया ने बाल-मन को स्क्रीन पर चलती-फिरती तसवीरों की ओर भटका दिया है लेकिन पुरानी पीढ़ी के दिल से पूछिये तो जानेंगे कि हाथ में पुस्तक या अखबार लेकर चित्रकथा को पढ़ने और बताई जा रही घटनाओं की स्वयं कल्पना करने में जो आनंद है, वह स्क्रीन पर देखने में नहीं । ये वो चित्रकथाएँ थीं जिन्हें कई-कई बार पढ़ने के बाद भी मन नहीं भरता था । ये लुभाती तो थी हीं पर इनमें से बहुत-सी (सारी तो नहीं) ज्ञानवर्धन भी करती थीं । मुझ जैसे लोगों के बचपन के बेहतरीन साथियों में ये पुस्तकें शुमार रही हैं । वो ज़माना तो गुज़र गया पर उसकी यादें आज भी अखबारों और पत्रिकाओं में निरंतर चलती रहने वाली चित्रकथाओं के माध्यम से ताज़ा हो जाती हैं ।
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