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मेरे अश्कों के दरिया में बहती है कागज़ की नाव (पुस्तक-समीक्षा – कागज़ की नाव)

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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रणवीर सिंह तथा सोनाक्षी सिन्हा द्वारा अभिनीत एवं विक्रमादित्य मोटवाने द्वारा निर्देशित हिन्दी फिल्म ‘लुटेरा’ देखकर मन अनमना सा हो गया । दिल में उदासी भी है और एक अनजानी सी महक भी । फिल्म देखते समय मन कहीं यादों के खंडहरों में भटकने लगा था । वो कौन सा मर्द है जिसने ज़िंदगी में कभी किसी औरत से प्यार नहीं किया और वो कौन सी औरत है जिसने ज़िंदगी में कभी किसी मर्द को अपना दिल नहीं दिया ? प्यार खुदा की नेमत है दोस्तों । प्यार को पाना नसीब की बात है मगर यह कभी-न-कभी, कहीं-न-कहीं होता हर इंसान को है । दुनिया में कोई विरला ही ऐसा होगा जिसने ज़िंदगी में कभी किसी को चाहा न हो ।

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सुरेन्द्र मोहन पाठक का नाम रहस्यकथाओं और थ्रिलर कथानकों के लेखक के रूप में जाना जाता है । मगर आज मैं उनके एक ऐसे उपन्यास का ज़िक्र कर रहा हूँ जो कहलाता तो थ्रिलर है मगर जो अपने भीतर प्रेम और दर्द की दास्तानें छुपाए हुए है । इस उपन्यास का नाम है – ‘कागज़ की नाव’ ।

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‘कागज़ की नाव’ 1986 में डायमंड प्रकाशन से छपा था और मैंने इसे पहली बार 1991 में तब पढ़ा जब मैं कलकत्ता में रहता था और सी. ए.  फ़ाइनल परीक्षा की तैयारी कर रहा था । उन दिनों मेरे निवास से थोड़ी ही दूर महात्मा गांधी रोड पर रोज़ शाम को उपन्यासों की ढेरियां लगाए बहुत से लोग एक लंबी कतार में बैठे रहते थे और किराए पर उपन्यास पढ़ने को देते थे । मैंने पाठक साहब के ज़्यादातर उपन्यास उसी दौर में उन लोगों से किराए पर लेकर पढ़े । एक दिन ‘कागज़ की नाव’ लेकर आया । उपन्यास मैं आम-तौर पर अपने कोर्स की पढ़ाई के बीच-बीच में विश्राम लेने के लिए पढ़ता था और विश्राम के बाद फिर से अपने अध्ययन में जुट जाता था । पर ‘कागज़ की नाव’ के साथ ऐसा हुआ कि उसे पढ़ने के दौरान कई मर्तबा मेरे आँसू निकल पड़े और जब उपन्यास पूरा हुआ तो मेरा किसी काम में मन नहीं लगा – न पढ़ाई में और न ही और किसी बात में ।

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तीन साल बाद । 1994 में जब मैं राजस्थान के सिरोही ज़िले में एक सीमेंट के कारखाने में नौकरी कर रहा था तो भारतीय सिविल सेवा की प्रारम्भिक परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद भाग्य से मिली लंबी छुट्टी के सदके मैं जयपुर आ गया और शहर के मानसरोवर स्थित क्षेत्र में अपने एक मित्र के यहाँ रहकर मुख्य परीक्षा की तैयारी करने लगा । मेरे मित्र के निवास से थोड़ी ही दूर पर एक उपन्यास किराए पर देने की दुकान थी । एक दिन यूं ही वहाँ गया तो पाठक साहब के बहुत सारे उपन्यास वहाँ पाए । अब यहाँ भी मैं परीक्षा की तैयारी के बीच-बीच में विश्राम लेने के लिए उपन्यास किराए पर लाकर पढ़ने लगा । एक दिन ‘कागज़ की नाव’ लाकर पढ़ा तो तीन साल पहले जो हुआ था, वो फिर हो गया । उपन्यास अकेले में (जब मेरा दोस्त अपनी बैंक की नौकरी पर गया हुआ था) पढ़ते हुए मैंने अनगिनत अश्क बहाए और उसके बाद मेरा न पढ़ने में मन लगा, न खाने में ।

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उन्नीस साल बाद । 2013 में एक पुस्तकालय से ‘कागज़ की नाव’ को निर्गमित करवाकर फिर से पढ़ा । नतीज़ा फिर से ढाक के तीन पात । पढ़ते समय आँखें बार-बार भर आतीं और दूसरों से अपने अश्क बमुश्किल छुपा पाता । क्यों ? क्यों यह उपन्यास हर बार मुझे अश्कों के दरिया में डुबो देता है ? ऐसा क्या है इसमें ?

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सुरेन्द्र मोहन पाठक ने ‘कागज़ की नाव’ को बंबई की बदनाम बस्ती धारावी की पृष्ठभूमि में एक अपराध-कथा के रूप में लिखा है । नाम ‘कागज़ की नाव’ इसलिए है क्योंकि पाठक साहब ने उपन्यास के एक पात्र इंस्पेक्टर यशवंत अष्टेकर के मुख से कहलवाया है कि अपराध कागज़ की नाव की तरह होता है जो बहुत देर तक, बहुत दूर तक नहीं चल सकती । बिलकुल ठीक है । मगर क्या यह केवल एक अपराध-कथा है ? नहीं !

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‘कागज़ की नाव’ अपने भीतर कई प्रेम-कथाओं को समेटे हुए है । पहली प्रेम-कथा है विलियम और मोनिका की । एंथोनी और अब्बास के साथ मिलकर अपराध करने वाला विलियम क्रिसमस की रात को जिस तरह से चर्च पर लगे क्रॉस पर चढ़कर मोनिका को अपनी हमराह बनने के लिए मजबूर करता है, वो ‘शोले’ फिल्म के प्रशंसकों को वीरू के पानी की टंकी पर चढ़कर बसंती से शादी करने के लिए दबाव डालने वाले दृश्य की याद दिला सकता है । मोनिका न केवल विलियम की उस रात के लिए हमराह बनती है बल्कि अगले ही दिन उससे शादी करके उसकी बीवी और फिर उसके बेटे की माँ भी बनती है । मगर …

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मगर एक दूसरी इकतरफ़ा प्रेम-कहानी विलियम के दोस्त एंथोनी के मन में भी चल रही थी जिससे मोनिका और विलियम बेखबर थे । मोनिका को मन-ही-मन चाहने वाला एंथोनी विलियम से उसकी शादी बर्दाश्त नहीं कर पाता और ऐसी चाल चलता है कि विलियम को खोकर मोनिका बेवा हो जाती है । उसे आसरा देने के बहाने एंथोनी उसे अपने पास बुला लेता है और उसके दिल को नहीं तो कम-से-कम उसके जिस्म को तो पा ही लेता है ।

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तीसरी प्रेम-कहानी तीस साल पुरानी थी । यशवंत अष्टेकर और विलियम की माँ मार्था की प्रेम-कहानी । बेहद बदसूरत अष्टेकर बेहद खूबसूरत मार्था के दिल में जगह बना लेता है और वे जिस्मानी तौर पर करीब आ जाते हैं । मार्था के ईसाई होने के कारण अष्टेकर के माँ-बाप उसकी शादी मार्था से नहीं होने देते और वह अपने पेट में अष्टेकर के बच्चे को लिए किसी और की बीवी बनने पर मजबूर हो जाती है । इसकी सज़ा अष्टेकर अपने माँ-बाप को भी और अपनी बुज़दिली के लिए अपने आप को भी इस तरह देता है कि वह न तो शादी करता है और न ही ज़िंदगी में फिर किसी औरत से जिस्मानी ताल्लुकात बनाता है । अष्टेकर का बेटा विलियम मार्था के पेट से जन्म लेता है । अष्टेकर जो अब पुलिस वाला बन चुका है, न तो अपने बेटे की माँ से मिल सकता है और न ही अपने बेटे को अपना बेटा कह सकता है । मगर जब विलियम की हत्या हो जाती है तो बाप का दिल कराह उठता है और वह विलियम के हत्यारे को सज़ा दिलवाने के लिए कमर कस लेता है । इधर मार्था ज़िंदगी भर अपने पति की गालियां और ताने सहती हुई, अपमान के कड़वे घूंट पीती हुई जीती है । और जब उसका इकलौता बेटा भी नहीं रहता तो उसके लिए ज़िंदगी एक बहुत भारी बोझ बन जाती है ।

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चौथी और दिल को चीर देने वाली प्रेम-कहानी है अष्टेकर के मरहूम दोस्त वसंत हज़ारे के बेटे लालचंद हज़ारे और खुर्शीद की । जहां लालचंद उर्फ़ लल्लू एंथोनी और अब्बास के साथ मिलकर काम करने वाला अपराधी है जिस पर अपनी माँ और दादी के भरण-पोषण की ज़िम्मेदारी है वहीं खुर्शीद उन बदनसीब लड़कियों में से है जिन्हें उनकी जन्मदात्री माँएं ही जिस्मफ़रोशी की दलदल में धकेल देती हैं । उसके जिस्म का सौदा करने वाले सब हैं, उसके दिल को देखने, समझने और महसूस करने वाला कोई नहीं । ऐसे में उसे सच्चे दिल से प्यार करने वाला लल्लू के रूप में मिलता है । लल्लू इक्कीस साल का है, खुर्शीद चौबीस साल की । लल्लू हिन्दू है, खुर्शीद मुसलमान । मगर जगजीत सिंह साहब की आवाज़ में ये अमर पंक्तियाँ हर संगीत-प्रेमी ने सुनी होंगी – ना उम्र की सीमा हो, ना जन्म का हो बंधन, जब प्यार करे कोई तो देखे केवल मन । दोनों एक दूसरे का मन देखते हैं और संग-संग  जीने-मरने की कसमें खा बैठते हैं । लालचंद कहलाने की ख़्वाहिश रखने वाला लल्लू खुर्शीद के कहने पर जुर्म की दुनिया को छोड़ देने का फैसला करता है मगर तक़दीर की मार उसे पहले जेल पहुंचा देती है और जेल से छूटने के बाद एक नाकाबिलेबर्दाश्त सदमा देती है खुर्शीद की मौत के रूप में । दिल तड़प उठता है मोहब्बत करने वाले का और ले जाता है उपन्यास को उसके क्लाइमेक्स की तरफ़ ।

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उपन्यास के पहले संस्करण के लेखकीय में सुरेन्द्र मोहन पाठक ने लिखा था कि उन्होंने उपन्यास को पात्र-प्रधान बनाने की जगह घटना-प्रधान बनाने का प्रयास किया था । और सचमुच उपन्यास घटना-प्रधान ही है क्योंकि कथानक में लगभग सभी पात्र बराबरी का दर्ज़ा रखते हैं । किसी को कम और किसी को ज़्यादा अहमियत नहीं दी गई है । पात्र घटनाओं के बहाव के साथ-साथ बहते हैं और मेरी इस धारणा को पुष्ट करते हैं कि इंसान किस्मत के हाथों में केवल एक खिलौना है । इंसान लाख दावे करे यह करने के, वह करने के; होता तो वही है जो मंज़ूरे खुदा होता है । मगर मैं यह कहना चाहता हूँ कि यह उपन्यास घटना-प्रधान होने के साथ-साथ भावना-प्रधान भी है । जज़्बात का सैलाब है इसमें जिसमें बार-बार भीगा हूँ मैं और भीगे होंगे मेरे जैसे न जाने कितने ही पाठक ।

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‘कागज़ की नाव’ की अंतिम पंक्तियाँ कभी न भुलाई जा सकने वाली हैं जब अपने पति की मृत्यु के उपरांत अष्टेकर से शादी कर चुकी मार्था लल्लू को पानी का गिलास देते हुए उसका नाम पूछती है तो वह पहले तो लालचंद बताता है मगर फिर हड़बड़ाकर संशोधन करता है – ‘नहीं-नहीं, मेरा नाम लल्लू है लल्लू ।’ अब लालचंद कहलाने की ख़्वाहिश नहीं रही उसकी । अब वह केवल लल्लू है, अपराध की दुनिया को छोड़ चुका अपनी खुर्शीद को दिलोजान से चाहने वाला लल्लू जिसे केवल खुर्शीद की यादों के सहारे अपनी बाकी की ज़िंदगी बसर करनी है ।

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‘कागज़ की नाव’ पाठक साहब की वह कालजयी रचना है जिसके अमरत्व की अनुभूति स्वयं इसके रचयिता को भी नहीं है । जैसे ‘लुटेरा’ कोई परफ़ेक्ट फ़िल्म नहीं है, वैसे ही ‘कागज़ की नाव’ भी कोई परफ़ेक्ट रचना नहीं है । इसमें कमजोरियाँ हैं, कमियां हैं । लेकिन क्या भौहें न होने के बावजूद मोनालिसा एक अमर चित्र नहीं ? ठीक इसी तरह ‘कागज़ की नाव’ भी अपनी चंद कमियों के बावजूद एक अत्यंत श्रेष्ठ कृति है, मास्टरपीस है । यह मेरे लिए सदा अश्कों का एक दरिया रही है और रहेगी ।

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