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ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है : दीवान कैलाशनाथ

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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ज़िन्दगी ज़िंदादिली का नाम है, मुरदादिल क्या ख़ाक जिया करते हैं’ ।  हम सबने सुना है मशहूर शायर जौक साहब का यह शेर जो कि हमेशा से किसी लोकोक्ति की तरह उद्धृत किया जाता रहा है । मगर ज़िन्दगी की दुश्वारियों से जिनका साबिक पड़ रहा हो, उनके लिए इस पर अमल करना कोई आसान काम नहीं । लेकिन जो इस पर अमल करते हैं और  अपने वजूद को ज़िंदादिली के साँचे में ढालते हैं, उनसे ज़्यादा दानिशमंद और सुकून से लबरेज़ जिगर के मालिक दूसरे नहीं । आप चाहे जैसी दुश्वारियों से दो-चार हो रहे हों, अगर ज़िन्दगी के हर पल को भरपूर जीने का हौसला रखते हैं तो कोई भी दुश्वारी आपके आगे ज़्यादा देर तक टिक नहीं सकती, आपके उठे हुए सर को झुका नहीं सकती ।

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उम्र पर भी यही बात लागू है । उम्र की लकीरें भले ही चेहरे पर नज़र आने लगें, उनसे आपके ज़िन्दगी को भरपूर जीने और उसके हर पल का लुत्फ़ लेने के नज़रिये पर असर न पड़े तो ही ज़िन्दगी जीने लायक रहती है । बुढ़ापे का ताल्लुक तन से ज़्यादा मन से होता है । अगर आप मन से बूढ़े नहीं हैं तो आपकी ज़िन्दगी का हर पल ख़ुशनुमा है, आनंद और उल्लास से ओतप्रोत है ।

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मेरे प्रिय हिन्दी लेखक सुरेन्द्र मोहन पाठक अपने जीवन के छियत्तर बसंत देख चुके हैं लेकिन आज भी उनकी ज़िंदादिली का कोई मुक़ाबला नहीं । यह बात उनके उपन्यासों के अनेक किरदारों में भी साफ़ नज़र आती है क्योंकि पाठक साहब के बहुत-से उपन्यास ज़िन्दगी की बाबत उनके नज़रिये को ही बयान करते हैं । आज से तक़रीबन पच्चीस साल पहले पाठक साहब ने एक ऐसे ही किरदार का सृजन किया था जो कि उम्र में भले ही चौहत्तर साल का है लेकिन ज़िंदादिली और जोश में नौजवानों से किसी कदर भी कम नहीं ।

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इस असाधारण किरदार का नाम है – ‘दीवान कैलाशनाथ’ । जहाँ तक मुझे याद पड़ता है, सुरेन्द्र मोहन पाठक द्वारा सृजित दीवान साहब का इंट्रोडक्टरी उपन्यास ‘दस मिनट’ था जो कि १९८५ में प्रकाशित हुआ था । लेकिन दीवान साहब इस थ्रिलर उपन्यास के नायक नहीं थे । दीवान साहब को बतौर नायक प्रस्तुत करता हुआ उपन्यास पाठक साहब ने छह साल बाद १९९१ में लिखा जो कि ‘शक़ की सुई’ नामक मर्डर मिस्ट्री था । आज मैं और मुझ जैसे असंख्य पाठक दीवान कैलाशनाथ को ‘शक़ की सुई’ के माध्यम से ही जानते हैं ।

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‘शक़ की सुई’ की शुरुआत दीवान साहब के क्लायंट अमरजीत खुराना के क़त्ल से होती है और दीवान साहब अगले दृश्य में पाठकों के सामने आते हैं जब केस की तहक़ीक़ात कर रहा दिल्ली पुलिस का सब-इंस्पेक्टर महेश्वरी इस बाबत उनसे विचार-विमर्श करने के लिए उनके कार्यालय में पहुँचता है । लेकिन महेश्वरी की आमद से पहले ही दीवान साहब का उपन्यास के पाठकों से तआरूफ़ हो चुका होता है । वे दिल्ली में स्थापित मशहूर वकील हैं, बार-एट-लॉ कहलाते हैं लेकिन चौहत्तर साल की उम्र में अब सेवानिवृत्त जीवन बिता रहे हैं । आज वे अपने दफ़्तर इसलिए आए हैं क्योंकि उनका बेटा जो कि अब इस वकालत के कारोबार को चलाता है, विदेश गया हुआ है ।
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दीवान साहब की बड़ी ही दिलचस्प बातचीत दफ़्तर के पुराने और उनके मुँहलगे चपरासी देवीसिंह से होती है जो कि सुरती-मास्टर है । वे उससे कैम्पाकोला मंगवाते हैं ताकि उसमें मिलाकर विस्की का पैग पी सकें । अपने बेटे के सिगारों के डिब्बे से निकालकर सिगार पीते हैं और सोचते हैं कि रिटायर्ड जीवन भी कितना मज़ेदार है जिसमें हर चीज़ के लिए वक़्त-ही-वक़्त हैं । अपने दफ़्तर की स्टेनो मिस चंद्रिका मैनी के लिए वे इस उम्र में भी रसिकमिज़ाजी रखते हैं और देवीसिंह से इस बारे में बात करते हैं । चंद्रिका मैनी ने सत्ताईस-अट्ठाईस साल पहले अपनी किशोरावस्था में उनके दफ़्तर को जॉइन किया था और अब पैंतालीस पार हो चुकी होने के बाद भी वे वहीं हैं और आज तक ग़ैर-शादीशुदा हैं ।
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दीवान साहब की कुछ मिस मैनी से और कुछ उनको लेकर देवीसिंह से चुहलबाज़ी होती है जिसके बाद सब-इंस्पेक्टर महेश्वरी के वहाँ पहुँच जाने से उनके कक्ष का माहौल बदल जाता है । वे महेश्वरी से अमरजीत खुराना के क़त्ल पर लंबी चर्चा करते हैं । चर्चा में नए ज़माने के समाजी तौर-तरीकों पर भी उनका नज़रिया और ग़ुस्सा सामने आता है । वे इस बात से नाराज़ हैं कि अब किसी के भी मर जाने से दुनिया को और यहाँ तक कि उसके होतो-सोतों को भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता और बहुत जल्द ही सारा कारोबार यूँ चलने लगता है मानो कुछ हुआ ही न हो । वे महेश्वरी के सामने अभी और क़त्ल वाक़या होने की भी संभावना व्यक्त करते हैं जिसे महेश्वरी उनके वृद्ध मस्तिष्क का बहकना ही समझता है ।

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इधर यह बेहद दिलचस्प मर्डर-मिस्ट्री आगे बढ़ती है, उधर दीवान साहब का बुढ़ापे में भी बालपन जैसा स्वभाव अपने रंग दिखाता है । महेश्वरी के रुख़सत होने के बाद वे देवीसिंह को बिना बताए अपने बेटे की विस्की की बोतल में से एक पैग निकालकर नीट ही पी जाते हैं । उसके बाद मिस मैनी द्वारा लाया गया सारा लंच खा जाते हैं । शाम को जब वे अपने पैन्थाउस अपार्टमेंट में पहुँचते हैं तो भीषण बारिश का माहौल होता है । उस मौसम की बाबत ज़िंदादिल दीवान साहब का नज़रिया यह है कि घर की छत की सुविधा उपलब्ध हो तो उसके जैसा दिलचस्प और रंगीन मौसम दूसरा नहीं । गरजते बादलों और कड़कती बिजलियों से युक्त आकाश उन्हें फ़िल्म के परदे जैसा लगता है जिस पर कोई ऐसी फ़िल्म चल रही हो जिसके स्पैशल इफ़ैक्ट्स को ऑस्कर पुरस्कार मिलने वाला हो । वे इस अपने पसंदीदा मौसम का आनंद मदिरा के साथ उठा ही रहे हैं कि तभी आ जाती हैं मिस मैनी ।

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अब मिस मैनी की और दीवान साहब की जुगलबंदी भी बड़ी दिलचस्प बन पड़ती है जिसमें मिस मैनी उनके लिए अपने हाथों से डिनर तैयार करती हैं और उनके साथ डिनर करने से पहले मदिरापान और धूम्रपान का भी आनंद लेती हैं । मिस मैनी विदा लेने से पहले उन्हें फिर से बोतल खोलकर न बैठ जाने की हिदायत देकर जाती हैं लेकिन उनके जाते ही दीवान साहब ऐन ऐसा ही करते हैं ।

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कहानी में चल रहे क़त्लों का सिलसिला महेश्वरी को उस रात दीवान साहब से फ़ोन पर लंबी बातचीत करने पर मजबूर कर देता है । एक-के-बाद-एक हो रहे क़त्ल उसका दिमाग घुमा देते हैं । आख़िर उसके इसरार पर दीवान साहब उसके थाने पहुँचते हैं और उसके आला अफ़सर और थानाध्यक्ष भूपसिंह के पास बैठते हैं । जिस समूह के सदस्यों की हत्याएं हो रही हैं, उसके बचे हुए दो सदस्यों को लेकर महेश्वरी थाने पहुँचता है । चूंकि उन दोनों में से एक युवा लड़की किरण है जिसके सभी अभिभावक मर चुके हैं, इसलिए दीवान साहब उसे अपने अपार्टमेंट में ही ले जाते हैं और उसकी देखभाल के लिए मिस मैनी को अपने यहाँ बुलाते हैं । इसके लिए वे मिस मैनी से फ़ोन पर जो वार्तालाप करते हैं, वह भी कम मनोरंजक नहीं है ।

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अगले दिन शाम को महेश्वरी की दीवान साहब से उनके अपार्टमेंट में ही मुलाक़ात होती है जहाँ पहले तो दीवान साहब सबके लिए कॉकटेल तैयार करते हैं मगर फिर घटनाक्रम यूँ घूमता है कि बूढ़े दीवान साहब और जवान महेश्वरी दोनों को ही मिस मैनी की तीखी फटकार झेलनी पड़ती है । लेकिन आख़िरकार यह पेचीदा मर्डर-मिस्ट्री दीवान साहब की सूझबूझ से ही हल होती है और अपराधी पकड़े जाते हैं जिनको पकड़ने के लिए दीवान साहब ख़ुद महेश्वरी के साथ वहाँ जाते हैं जहाँ वे छुपे हुए होते हैं । चौहत्तर साल की उम्र में उन्हे खिड़कियां फाँदनी पड़ती हैं लेकिन उनके लिए यह भी एक एडवेंचर ही है ।
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‘शक़ की सुई’ एक बेहद लोकप्रिय और सफल उपन्यास सिद्ध हुआ लेकिन चूंकि पाठक साहब से उनके किसी भी पाठक ने दीवान साहब से फिर से मिलने की ख़्वाहिश ज़ाहिर नहीं की जिससे पाठक साहब ने यह नतीज़ा निकाला कि उनका यह चौहत्तर साल का नया हीरो फ़ेल हो गया और इसलिए इसे आगे किसी उपन्यास में दोहराए जाने की ज़रूरत नहीं रही । बाकी पाठकों की तो मैं नहीं कहता मगर मुझे तो ‘शक़ की सुई’ दीवान साहब के किरदार के कारण ही इतना अधिक पसंद आया वरना रहस्यकथाएं तो हम पढ़ते ही रहते हैं । यह दीवान साहब की ग़ैर-मामूली शख़्सियत का ही ज़हूरा है जो ‘शक़ की सुई’ को बार-बार पढ़ा जा सकता है और हर बार पहले जैसा ही आनंद उठाया जा सकता है ।

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मैंने पाठक साहब से कई बार दीवान साहब को किसी उपन्यास में दोहराने की इल्तज़ा की मगर हर बार उन्होंने इसके खिलाफ़ यही दलील दी कि चौहत्तर साल का वृद्ध नायक उनके पाठकों को पसंद नहीं आएगा । हो सकता है कि जब ‘शक़ की सुई’ पहली बार प्रकाशित हुआ था तब उनके पाठकों की राय ऐसी ही रही हो लेकिन तब से अब तक तो चौथाई सदी का लंबा वक़्फ़ा गुज़र चुका है । नई पीढ़ी को उनकी वृद्धावस्था के बावजूद दीवान साहब की ज़िंदादिली और रंगीनमिज़ाजी से इत्तफ़ाक़ हो सकता है । ऐसे में मेरी पाठक साहब से फिर से अपील है कि दीवान साहब को लेकर एक उपन्यास ज़रूर लिखें ।

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मेरी यह अपील पाठक साहब मंज़ूर करें या न करें, मैं दीवान कैलाशनाथ की ज़िंदादिली का कायल हूँ और रहूंगा । दीवान साहब की शख़्सियत हमें ज़िन्दगी का यह बेशकीमती फ़लसफ़ा सिखाती है कि मरने से पहले जीना न छोड़ो । जब भी मैं चौहत्तर साल के इस जवान का तसव्वुर करता हूँ, मुझे एक बड़ा पुराना हिन्दी गाना याद आता है – ‘छोड़ो सनम, काहे का ग़म, हँसते रहो, खिलते रहो; मिट जाएगा सारा गिला, हमसे गले मिलते रहो’

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