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सपनों, संघर्षों और भावनाओं का जंगल

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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एक मुद्दत के बाद सपरिवार कोई फ़िल्म देखी । नूतन वर्ष के शुभारंभ के दिन ही मैं अपनी भार्या, पुत्री एवं पुत्र के साथ आमिर ख़ान द्वारा निर्मित-अभिनीत तथा नीतेश तिवारी द्वारा निर्देशित फिल्म ‘दंगल’ देखकर आया । फ़िल्म के आरंभ से लेकर अंत तक के समयान्तर में कई बार मैंने अपने नेत्रों को सजल पाया । अच्छा था कि निपट अंधकार में कोई मेरे अश्रु देख नहीं सकता था । और मुझे पूर्ण विश्वास है कि अश्रुपात करने वाला मैं अकेला ही नहीं था, मुझ जैसे असंख्य दर्शकों ने इस फ़िल्म को देखते समय अपने नयनों से नीर बहाया होगा ।

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ऐसी फ़िल्में बार-बार नहीं बनतीं । यद्यपि विगत एक दशक में खेल और खिलाड़ियों पर आधारित कई फ़िल्में बनी हैं जिनमें वास्तविक खिलाड़ियों के जीवन पर बनी फ़िल्में भी सम्मिलित हैं । लेकिन २००७ में प्रदर्शित ‘चक दे इंडिया’ के पश्चात् यदि किसी फ़िल्म ने मुझे इस सीमा तक द्रवित किया और मेरे हृदय को विजित किया तो वह ‘दंगल’ ही है । ‘दंगल’ कहानी कहती है द्रोणाचार्य पुरस्कार विजेता भारतीय पहलवान महावीर सिंह फोगाट की दिल दहला देने वाली लेकिन प्रेरणास्पद यात्रा की जिसका गंतव्य था उसकी पुत्रियों गीता और बबीता द्वारा अंतर्राष्ट्रीय स्तर की स्पर्धाओं में भारत के लिए स्वर्ण पदक जीतना ।

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हरियाणा ही क्या, सम्पूर्ण भारत में ही पुत्र की कामना सभी करते हैं और जब पुत्र के स्थान पर पुत्री हो जाए तो शोकमग्न हो जाते हैं । महावीर के लिए फ़िल्म में बताया गया है कि उसे पुत्री के जन्म से कोई शोक नहीं था लेकिन वह देश के लिए स्वर्ण पदक जीतने के अपने अधूरे सपने को अपनी संतान के द्वारा पूरा करना चाहता था और उसे लगता था कि पुत्र ही यह कार्य कर सकता था लेकिन एक दिन एक छोटी-सी घटना ने उसे अनुभव करवाया कि जो पुत्र कर सकता है, वह पुत्री भी कर सकती है । और उसी दिन से पिता केवल पिता नहीं रहा, वह अपनी दो पुत्रियों का, जो तब बाल्यावस्था में ही थीं, गुरु बन गया – कुश्ती के खेल के लिए गुरु ।

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यात्रा आरंभ तो हो गई थी लेकिन सरल तो हो ही नहीं सकती थी । जैसा कि एक प्रसिद्ध कवि ने कहा है – ‘वह पथ क्या, पथिक-कुशलता क्या जब पथ में बिखरे शूल न हों, नाविक की धैर्य-परीक्षा क्या जब धाराएं प्रतिकूल न हों’ । इस कठिन यात्रा में महावीर को अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा और उसकी दुहिताओं को भी । और जीवन का जटिल तथा कठिनाई से समझ में आने वाला सत्य यह है कि वे स्वयं भी कहीं-कहीं बाधा बने एक-दूसरे के लिए । लेकिन वो राही क्या जो थककर बैठ जाए, वो मंज़िल क्या जो आसानी से तय हो । सरलता से मिल जाए तो फल की प्राप्ति का आनंद ही क्या ? जिस द्वंद्व में पराजय की संभावना शून्य हो, उस द्वंद्व में विजय का उल्लास ही कैसा ?

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और महावीर के साथ-साथ गीता, बबीता और उनकी माँ दया शोभा कौर के लिए यह काँटों भरी यात्रा चलती रही बरसोंबरस । लेकिन जैसा कि कबीर दास जी ने सैंकड़ों साल पहले ही कह दिया था – ‘धीरे-धीरे रे मना, धीरे सब कुछ होय, माली सींचे सौ घड़ा, ऋतु आए फल होय’ । जब समय आ जाता है तो बरसों की यह मेहनत, कामना के उपवन में की गई कर्म की सिंचाई अंततः मधुर फल देती है । गीता और बबीता दोनों ने ही राष्ट्रकुल खेलों में कुश्ती में स्वर्ण पदक जीते । गीता ने २०१० में नई दिल्ली में हुए खेलों में ५५ किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण पदक जीता तो बबीता ने उन खेलों में ५१ किलोग्राम वर्ग में रजत पदक जीता और २०१४ में ग्लासगो (स्कॉटलैंड) में हुए खेलों में ५५ किलोग्राम वर्ग में स्वर्ण पदक जीता । इसके अतिरिक्त दोनों ही बहनों ने २०१२ में अल्बर्टा (कनाडा) में हुई विश्व कुश्ती चैम्पियनशिप में कांस्य पदक भी जीते । इससे पूर्व दोनों ही बहनें राष्ट्रीय चैंपियन भी बनी थीं ।

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इस कठिन यात्रा में दोनों बच्चियों ने बहुत त्याग किया, उनकी माँ ने भी । सभी ने महावीर को ग़लत भी समझा । कितनी ही बार अपनी पीड़ा को अपने हृदय में दबाए हुए एक पिता गुरु का वेश धारण करके अपने खंडित स्वप्नों को अपनी बच्चियों की उपलब्धियों में साकार करने का स्वप्न लिए अपने एकाकीपन से जूझता रहा । उसे संवेदनहीन व्यवस्था के विभिन्न स्तरों पर भी लड़ना और हारना पड़ा लेकिन गंतव्य तक पहुँचने का उसका संकल्प प्रत्येक पीड़ा, प्रत्येक अपमान और प्रत्येक तात्कालिक पराजय पर भारी पड़ा । उसने प्रत्येक समस्या का समाधान ढूंढा और जितना त्याग उसकी बेटियों ने किया था, उससे कहीं अधिक त्याग उसने स्वयं अपने निजी स्तर पर किया । एक हारा हुआ बाप आख़िरी बाज़ी अपनी औलाद के मार्फ़त जीतने के लिए क्या कुछ नहीं कर सकता, क्या कुछ नहीं सह सकता; यह महावीर ने दिखाया और क्या खूब दिखाया !

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‘दंगल’ यद्यपि गीता के व्यक्तित्व, प्रयासों और अंतर्द्वंद्व पर ही अधिक केन्द्रित रहती है, तथापि यह पिता-पुत्रियों के सम्बन्धों के साथ पूरा न्याय करती है । दोनों बच्चियाँ जिस दिन अपने पिता को ठीक से समझ जाती हैं और इस तथ्य को पहचान जाती हैं कि उनका पिता उन असंख्य हरियाणवी पिताओं से कहीं उत्तम है जो अपनी पुत्रियों को भार समझते हैं और उससे शीघ्रातिशीघ्र मुक्त होने (उनका अल्पायु में ही विवाह करके) के अतिरिक्त उनके लिए कुछ नहीं सोचते तो उनका अपने पिता के प्रति दृष्टिकोण परिवर्तित हो जाता है । और उसके उपरांत छोटी-छोटी लेकिन महत्वपूर्ण सफलताएं अपने आप खिंचकर उनकी ओर आने लगती हैं । बच्चियाँ बड़ी होती हैं तो छोटी सफलताएं बड़ी सफलताओं में रूपांतरित हो जाती हैं । लेकिन …

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लेकिन राष्ट्रीय चैंपियन बनने के फलस्वरूप गीता को राष्ट्रीय खेल अकादमी में प्रशिक्षण के लिए भेजा गया और वहाँ उसने वह सब कुछ पाया जिसका अपने गाँव में वह केवल स्वप्न ही देखा करती थी । नई संगत मिली और आरंभ हुआ पथ से विचलन जिसे रोकने के लिए उसका पिता उपस्थित नहीं था । नए प्रशिक्षक महोदय का प्रशिक्षण उसे अपने गंवई पिता द्वारा दिए गए प्रशिक्षण से उत्तम लगा । और आई दरार पिता-पुत्री के अभी तक मैत्रीपूर्ण रहे गुरु-शिष्या संबंध में । कौन सही था ? पुरानी तकनीक को ही सही मानने वाला पिता ? या आधुनिक तकनीक से नई-नई परिचित हुई पुत्री ? फ़िल्म उनके जीवन के इस दौर को बड़ी वास्तविकता, निष्पक्षता तथा संवेदनशीलता के साथ दर्शाती है । गीता असफलता के दंश को सहने के उपरांत अपने पिता की अनवरत प्रेरणा के अवलंब से सफलता का पुनः आस्वादन कैसे करती है, यह भी अत्यंत मार्मिक ढंग से दर्शाया गया है ।

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जब अखाड़े में पिता अपनी आत्मविश्वास से भरी पुत्री से हारता है तो वह आहत अवश्य होता है लेकिन दुखी नहीं । अपनी संतान से प्रेम करने वाला और उसे सफलता के उच्च बिन्दु पर देखने का इच्छुक कौनसा पिता उससे जीतना चाहता है ? महावीर को अपनी पराजय से कष्ट नहीं होता, भविष्य में गीता की अपने प्रतिद्वंद्वियों से पराजित होने की आशंका से कष्ट होता है क्योंकि वह उसे हारते हुए नहीं देख सकता । उसे गीता से हारकर पीड़ा नहीं होती, अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में गीता के हारने से पीड़ा होती है । यही एक सच्चे पिता की पहचान है, यही एक सच्चे गुरु की पहचान है ।

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हमारे देश में लगभग सभी खेल संगठन तथा सरकारी व्यवस्थाएं खेलों, खिलाड़ियों तथा राष्ट्र की प्रतिष्ठा के प्रति नकारात्मक भूमिका ही निभाती हैं एवं महावीर और गीता के कार्यकलाप भी इस मामले में अपवाद नहीं रहे । न जाने भारत की संवेदनहीन व्यवस्थाएं अपनी चिरस्थायी प्रतीत होती खलनायक रूपी भूमिका से कब मुक्ति पाएंगी ? कब सकारात्मक एवं खुली सोच वाले व्यक्ति संसाधनों पर नियंत्रण करने वाली शक्तिशाली कुर्सियों पर बैठेंगे जो खेलों और खिलाड़ियों को प्रोत्साहित करेंगे न कि हतोत्साहित ? लेकिन फ़िल्म इस सनातन तथ्य को भी दो टूक ढंग से स्थापित कर देती है कि उगते सूरज के जलाल को कोई नहीं रोक सकता, निहित स्वार्थों में जकड़ीं संवेदनारहित व्यवस्थाएं भी नहीं ।

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‘दंगल’ महिलाओं के प्रति जनमानस में रची-बसी पुरातनपंथी सोच का भी निर्भीकता से प्रदर्शन और विरोध करती है और गीता तथा बबीता के ठोस उदाहरण से इस तथ्य को प्रतिपादित करती है कि देरसवेर समाज को उनके प्रति अपनी पूर्वग्रहयुक्त प्रतिगामी मानसिकता को त्यागना ही होगा । और इसका आरंभ बच्चियों के अभिभावकों को ही करना होगा । जब परिवार अपने विचार और अपने दृष्टिकोण को उचित दिशा में मोड़ेंगे तो धीरे-धीरे सम्पूर्ण समाज का दृष्टिकोण अपने-आप ही सुधरेगा क्योंकि अंततोगत्वा समाज परिवारों का समूह ही तो है ।

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दंगल‘ फ़िल्म अभिनेता और निर्माता आमिर ख़ान के साहस और सामाजिक सोद्देश्यता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता का प्रमाण है । उनके मुस्लिम होने के कारण किसी भी बिन्दु को लेकर उन पर आक्रमण करने को सदा तत्पर बैठे भारत के छद्म-राष्ट्रवादी उनके लिए चाहे जो कहें, २००१ में आई ‘लगान‘ से आरंभ करके आमिर ख़ान ने विगत डेढ़ दशक में अपने आपको एक पृथक् श्रेणी में स्थापित कर दिया है । एक दीर्घावधि से वे केवल धन कमाने के लिए इस क्षेत्र में कार्यरत नहीं हैं वरन अपने कार्य के माध्यम से समाज को एक दिशा देने का भी प्रयास करते हैं । ऐसा करके वे अपने समकालीनों से बहुत ऊंचे उठ गए हैं और किसी भी अन्य भारतीय सिने-नायक से अधिक सम्मानित रूप में देखे जाते हैं । इस फ़िल्म का निर्माण ही उनके साहस का प्रतीक है । और महावीर सिंह फोगाट के रूप में उन्होंने मानो अभिनय नहीं किया है वरन उस चरित्र में ही वे ढल गए हैं । एक जीवन से हारे हुए पिता की अपनी संतान के माध्यम से जीतने की तड़प और उसके एकाकी मन की घुटन को जिस तरह से उन्होंने प्रतिबिम्बित किया है, वह संभवतः उनके अतिरिक्त किसी अन्य अभिनेता के वश की बात थी भी नहीं । सहायक भूमिकाओं में अन्य सभी अभिनेताओं एवं अभिनेत्रियों ने भी स्वाभाविक अभिनय किया है । गीता और बबीता की भूमिकाएं करने वाली अभिनेत्रियों तथा उनके बचपन की भूमिकाएं करने वाली बाल कलाकारों ने तो अपने सजीव अभिनय से दर्शकों के हृदय अत्यंत सहज भाव से जीत लिए हैं । उनके चचेरे भाई की भूमिका करने वाले कलाकारों (बाल एवं वयस्क, दोनों रूपों में) ने दर्शकों के लिए इस गंभीर फ़िल्म में हास्य की भरपूर ख़ुराक जुटाई है ।

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‘दंगल’ के लेखकों ने जहाँ वास्तविक जीवन के चरित्रों एवं घटनाओं को लेकर एक हृदयस्पर्शी पटकथा लिखी है, वहीं निर्देशक नीतेश तिवारी ने कथा को अत्यंत संवेदनशील तथा प्रामाणिक ढंग से परदे पर उतारा है । कला-निर्देशक ने जहाँ नब्बे के दशक में हरियाणा के ग्रामीण क्षेत्र को रजतपट पर साकार कर दिया है, वहीं गीतकार अमिताभ भट्टाचार्य द्वारा रचित भारतीय मिट्टी की सुगंध लिए गीतों को संगीतकार प्रीतम ने मधुर धुनों में ढाला है । कुल मिलाकर फ़िल्म प्रत्येक दृष्टि से परिपूर्ण है । बबीता फोगाट के चरित्र को अधिक उभरने का अवसर समयावधि की सीमा के कारण नहीं मिल सका लेकिन जितना भी समय इस चरित्र को फ़िल्म में मिल पाया है, इसने अपनी अमिट छाप छोड़ी है ।

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‘दंगल’ केवल एक फ़िल्म नहीं, एक सामाजिक अभिलेख है । यह एक महागाथा है भारतीय ललनाओं की अथाह प्रतिभा की और सभी बाधाओं को पार करके गंतव्य तक पहुँचने के उनके अदम्य साहस और स्पृहणीय जीवट की । यह एक जंगल है सपनों का, संघर्षों का और भावनाओं का । किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के हृदय की गहनता में उतरकर उसके तल तक को स्पर्श कर लेने वाली यह असाधारण गाथा सभी भारतीय बेटियों और उनके अभिभावकों के लिए एक अटूट प्रेरणा-सलिला है और सदा रहेगी ।

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२१ नवम्बर, २०१६ को गीता फोगाट का शुभ विवाह कुश्ती के क्षेत्र में ही सक्रिय पवन के साथ सम्पन्न हुआ है । मैं गीता को सुखी विवाहित जीवन के लिए आशीर्वाद देता हूँ और प्रार्थना करता हूँ कि सभी भारतीय बेटियाँ गीता जैसी ही साहसी, जुझारू और आत्मविश्वास से परिपूर्ण बनकर सफलता और सार्थकता के नये-नये आयाम छुएं ।

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