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सरकारी सम्मानों की बंदरबाँट

जितेन्द्र माथुर
जितेन्द्र माथुर
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नया साल लग चुका है और अब छब्बीस जनवरी अर्थात् भारत का गणतन्त्र दिवस भी कुछ दूर नहीं । मौसम आ गया है सरकारी सम्मानों की बंदरबाँट का । भारत में ढेरों लोग इस समय ‘पद्मश्री’ सम्मान की आस लगाए बैठे होंगे । कुछ ‘पद्मश्री’ से ऊपर उठकर ‘पद्मभूषण’ और कुछ उससे भी ऊपर जाकर ‘पद्मविभूषण’ के प्रति आशान्वित होंगे । सरकार की मुट्ठी अभी बंद है । जब खुलेगी तो बंटेंगी रेवड़ियाँ । रेवड़ियाँ प्रतीकात्मक महत्व वाले सरकारी सम्मानों की ।

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मैंने इन सम्मानों के लिए ‘रेवड़ी’ शब्द का प्रयोग जान-बूझकर किया है । संदर्भ है एक बहुत पुरानी हिन्दी कहावत – अंधा बाँटे रेवड़ी, फिर-फिर अपनों को दे । कम-से-कम हमारे देश में तो यह कहावत आए दिन और लगभग प्रत्येक क्षेत्र में चरितार्थ होती है । जिस तरह रेवड़ियाँ बाँटने वाला अंधा पात्र-कुपात्र में भेद नहीं कर सकता और उन्हीं को बाँट देता है जो उसके समीप के लोग होते हैं या जिन्हें वह जानता है, उसी तरह भारत में सरकारी सम्मान, अलंकरण और उपाधियाँ विभिन्न सरकारें उन्हीं को प्रदान करती हैं जिन्हें वे ‘अपने लोग’ समझती हैं ।

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एक ‘भारत रत्न’ को छोड़ दिया जाए तो अन्य सम्मानों के लिए जुगाड़बाज़ी भी खूब चलती है । चाहे इन सम्मानों का व्यावहारिक मोल कुछ भी न हो, लोग मरे जाते हैं इन्हें पाने के लिए । इनके साथ कुछ धनराशि भी दी जाती है जो वर्तमान महंगाई के युग में कोई बड़ी राशि नहीं मानी जा सकती । मैं प्रतिवर्ष इन सम्मानों के प्राप्तकर्ताओं की सूची को देखता हूँ और यही पाता हूँ कि मुश्किल से आधे पुरस्कार ही वास्तविक अर्हता के आधार पर दिए जाते हैं बाकी रेवड़ियाँ ही होती हैं जिन्हें अंधे व्यक्ति सरीखी सरकारें या तो जुगाड़बाज़ों को या फिर अपने खेमे के लोगों को बाँटती हैं ।

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एक विशेष सम्मान ‘भारत रत्न’ है जिसे भारत का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान (सिविलियन अवार्ड) कहा जाता है । ‘भारत रत्नों’ की सूची को देखा जाए तो पता चलेगा कि बहुत-से प्राप्तकर्ताओं को यह सम्मान विशुद्ध रूप से राजनीतिक कारणों से ही मिला है । आरंभ में ‘भारत रत्न’ सहित कोई भी पुरस्कार या तो संबन्धित व्यक्ति के जीवनकाल में ही दे दिया जाता था या यदि मरणोपरांत देना होता था तो मृत्यु के एक वर्ष के भीतर-भीतर ही उसे प्रदान कर दिया जाता था । इसीलिए सरदार पटेल जैसी विभूति को यह सम्मान नहीं मिल सका था क्योंकि उनका निधन १९५० में ही हो गया था जबकि इन पुरस्कारों को दिए जाने का आरंभ १९५४ में हुआ था । लेकिन १९९० में केंद्रीय सरकार ने दलित वोट बैंक हथियाने के लिए बाबासाहब आंबेडकर को उनके निधन के ३४ वर्षो के उपरांत ‘भारत रत्न’ देकर एक अनुचित परंपरा का आरंभ किया जिसे परवर्ती सरकारों ने भी जारी रखा और यह अनुचित परंपरा आज तक जारी है जिसका उपयोग राजनीतिक अंक पाने के लिए ही किया जाता है । यह परंपरा अनुचित इसलिए है क्योंकि किसी ऐतिहासिक विभूति को सम्मानित करने के लिए इतिहास में पीछे जाने की तो कोई सीमा ही नहीं है । साथ ही बहुत-सी ऐतिहासिक विभूतियाँ इतनी महान हैं कि उनका व्यक्तित्व इन औपचारिक सरकारी सम्मानों से ऊपर उठ चुका है और ऐसे में उनके दिवंगत होने के उपरांत असाधारण अवधि व्यतीत हो चुकने पर उनके लिए सम्मान की घोषणा हास्यास्पद ही लगती है ।

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ब्रिटिश राज में हमारे फ़िरंगी हुक्मरान कुछ प्रभावशाली लोगों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए ‘रायसाहब’, ‘रायबहादुर’, ‘लाट साहब’ आदि पदवियाँ बांटते थे जिनका व्यावहारिक मूल्य कुछ भी नहीं होता था । स्वतंत्र भारत में ऐसी खोखली उपाधियाँ देने की परंपरा न ही रखी जाती तो ठीक होता । लेकिन भारतवासियों द्वारा चुनी गई सरकारें भी ऐसी अंग्रेज़परस्त एवं अंग्रेज़ीपरस्त निकलीं कि ये निरर्थक उपाधियाँ भिन्न नामों से दी जाने लगीं । इन उपाधियों का श्रेणीकरण भी अर्थहीन तथा तर्कहीन है । मैं तो लाख प्रयास करने पर भी नहीं समझ सका कि ‘पद्मभूषण’ तथा ‘पद्मविभूषण’ में क्या अंतर होता है और ‘पद्मभूषण’ को ‘पद्मविभूषण’ से कमतर क्यों माना जाना चाहिए लेकिन सरकार के हिसाब से अंतर होता है तो होता है । ‘भारत रत्न’ से सम्मानित किए जाने योग्य कैलाश सत्यार्थी जैसे नोबल पुरस्कार विजेता को तो आज तक सरकार ने ‘भारत रत्न’ की बात तो छोड़िए, किसी भी राजकीय सम्मान के योग्य नहीं पाया है ।  ऐसे में ये सम्मान अंधे की रेवड़ियाँ नहीं हैं तो और क्या हैं ?
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सेना में भी चक्रों से माध्यम से सम्मान दिए जाते हैं जो नागरिक अलंकरणों से पृथक् होते हैं । सैनिकों को उनके साहस एवं बलिदान के लिए निश्चय ही सम्मानित किया जाना चाहिए लेकिन मैंने विभिन्न चक्रों को दिए जाने के आधारों के बारे में पढ़ा तो मुझे ‘परमवीर चक्र’, ‘महावीर चक्र’, ‘वीर चक्र’, ‘कीर्ति चक्र’, ‘शौर्य चक्र’ आदि में भिन्नता किए जाने का कोई तर्क समझ में नहीं आया । केवल ‘अशोक चक्र’ को दिए जाने का आधार ही स्पष्ट है और यह दूसरे पदकों से भिन्न इसलिए है क्योंकि यह शांतिकाल में दर्शाए गए साहस के लिए दिया जाता है जबकि अन्य पदक युद्धकालीन गतिविधियों के परिप्रेक्ष्य में दिए जाते हैं ।

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नागरिक सम्मानों के साथ यह शर्त भी रहती है कि संबन्धित प्राप्तकर्ता इन्हें अपने नाम के साथ जोड़ नहीं सकता । ऐसे में इन सम्मानों की उपयोगिता देने वाली सरकारों के लिए हो तो हो, पाने वालों के लिए तो कोई विशेष प्रतीत नहीं होती । वस्तुतः इनके माध्यम से सरकारें प्राप्तकर्ताओं (अथवा संबन्धित वर्गों) को मूर्ख ही बनाती हैं । अच्छा हो यदि दासता के युग के अवशेष सरीखे इन अलंकरणों को समाप्त ही कर दिया जाए और गणतन्त्र दिवस पर राष्ट्राध्यक्ष महोदय के करकमलों से सम्पन्न किए जाने वाले इस वार्षिक तमाशे को बंद कर दिया जाए । कर्मशील एवं योग्य भारतीयों को सम्मान देने के और बहुत से माध्यम सृजित किए जा सकते हैं जो शालीन भी हों और निष्पक्ष भी ।
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