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‘पूर्णा’ फ़िल्म को कुछ मास पूर्व मैंने इंटरनेट पर देखा और यह फ़िल्म सीधे मेरे हृदय की गहनता में उतर गई । उसके उपरांत भी इस लेख को लिखने में असाधारण विलंब हुआ, संभवतः इसलिए कि एक उत्कृष्ट कृति के प्रति न्याय करने योग्य लेख लिखने के लिए मैं उद्यत नहीं हो पा रहा था । आज जब सहसा हृदय में हिलोर उठी कि इस लंबित कार्य को अवश्य पूर्ण करना है तो लेखनी भी सक्रिय हो उठी ।
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भारत में ३१ मार्च, २०१७ को प्रदर्शित ‘पूर्णा’ हिन्दी भाषा में निर्मित वह बहु-प्रशंसित फ़िल्म है जो कई अन्य भाषाओं में भी अनूदित हो चुकी है । यह तेलंगाना राज्य के पकाला ग्राम के निर्धन परिवार की कन्या पूर्णा मालावत की वास्तविक कहानी है जिसने २५ मई, २०१४ को मात्र तेरह वर्ष और ग्यारह मास की आयु में माउंट एवरेस्ट पर पहुँच कर तिरंगा लहराया और इस प्रकार विश्व के सर्वोच्च पर्वत शिखर पर विजय प्राप्त करने वाली सबसे कम आयु की पर्वतारोही बनने का कीर्तिमान स्थापित किया । वास्तविक पूर्णा अब उच्च शिक्षा प्राप्त कर रही है जिसकी भूमिका इस फ़िल्म में अदिति इनामदार ने निभाई है ।
इस फ़िल्म का (अमित पाटनी के साथ मिलकर) निर्माण तथा दिग्दर्शन राहुल बोस ने किया है जो अपने स्वाभाविक अभिनय तथा सार्थक सिनेमा में किए गए योगदान के लिए भारतीय फ़िल्म जगत में सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं । फ़िल्म में पूर्णा के मार्गदर्शक तथा प्रतिपालक (मेंटर) आर.एस. प्रवीण कुमार (जो कि भारतीय पुलिस सेवा के एक वरिष्ठ अधिकारी हैं) की भूमिका उन्होंने स्वयं ही निभाई है ।
जहाँ तक फ़िल्म की गुणवत्ता का प्रश्न है, वह उत्कृष्ट है, इसमें कोई संदेह नहीं । आरंभ में प्रशासनिक सेवा के अधिकारियों के साथ प्रवीण कुमार के एक दृश्य जिसे फ़िल्म के अंतिम भाग में दोहराया भी गया है तथा एक-दो अतिरेकपूर्ण प्रसंगों को छोड़कर फ़िल्म अपने मुख्य स्वरूप में अत्यंत प्रभावशाली है । राहुल बोस ने न केवल स्वयं प्रवीण कुमार की भूमिका में प्राण फूंक दिए हैं, वरन उन्होंने प्रशांत पांडे तथा श्रेया देव वर्मा द्वारा लिखित पटकथा को अत्यंत स्वाभाविक एवं हृदयस्पर्शी रूप में रजतपट पर उतारा है । पूर्णा के जीवन के माध्यम से भारतीय ग्रामीण परिवेश में बालिकाओं के प्रति नितांत संवेदनशून्य पारंपरिक दृष्टिकोण को हृदयविदारक रूप में दर्शाती यह फ़िल्म अनेक स्थलों पर दर्शकों के नेत्रों को सजल कर देने में सक्षम है तथा कोई भी संवेदनशील व्यक्ति इसे देखकर भावुक हुए बिना नहीं रह सकता । राहुल बोस ने अत्यंत न्यून तापमान वाले वास्तविक पर्वतीय स्थलों में फ़िल्मांकन का साहसिक कार्य किया है जिसमें अभिनेताओं सहित उनके सम्पूर्ण कार्यदल ने अपना अमूल्य योगदान दिया है । इसके लिए ये सभी भूरि-भूरि प्रशंसा तथा अभिनंदन के अधिकारी हैं । शुभ्रांशु दास का छायांकन हो या मनन मेहता का सम्पादन या फिर अमिताभ भट्टाचार्य के मर्मस्पर्शी गीतों के लिए सलीम-सुलेमान द्वारा बनाई गई धुनें, सभी कुछ सराहनीय है ।
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कास्टिंग निर्देशक मयंक दीक्षित ने केंद्रीय भूमिका के लिए अदिति इनामदार के रूप में सर्वोपयुक्त चयन किया है । अदिति ने वास्तविक पूर्णा को मानो चित्रपट पर जीवंत कर दिया है । पूर्णा की पूर्ण-अपूर्ण इच्छाएं, भावनाएं, घुटन और पीड़ाएं अदिति के हाव-भावों में साकार हो उठी हैं । पूर्णा की अभिन्न सखी तथा मूल-प्रेरणा प्रिया के रूप में एस. मारिया ने भी जो अभिनय किया है वह दर्शक के हृदय के तल तक पहुँच कर उसे स्पर्श कर लेता है । प्रवीण कुमार की भूमिका के साथ राहुल बोस से अधिक न्याय कोई अन्य कर ही नहीं सकता था । बाकी सभी कलाकार भी अपनी-अपनी भूमिकाओं में सहज स्वाभाविक हैं ।
बायोपिक (जीवनी) फिल्मों के इस दौर में ‘पूर्णा’ अपना एक पृथक् स्थान रखती है क्योंकि यह उस संघर्षशील बालिका के अपने पीड़ादायी बाल्यकाल से अपनी असाधारण उपलब्धि तक की उस यात्रा को प्रस्तुत करती है जिसे वह समुचित प्रशंसा तथा प्रचार नहीं मिला जिसकी वह अधिकारिणी है । प्रत्येक छोटी-बड़ी बात का कोलाहल करने वाले संचार माध्यमों द्वारा भी इस प्रेरक गाथा की उपेक्षा ही की गई जिसकी क्षतिपूर्ति यह फ़िल्म करती है । और इसीलिए यह फ़िल्म भी उतनी ही असाधारण है जितनी कि असाधारण वह वास्तविक उपलब्धि है जो फ़िल्म का आधार है ।
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इस अधिकांशतः वास्तविक घटनाक्रम एवं तथ्यों पर आधारित फ़िल्म को देखते समय (एवं देखने के उपरांत भी) मुझे यह लगा कि इसमें निरूपित गाथा पूर्णा मालावत नामक साहसी बालिका से भी अधिक आर.एस. प्रवीण कुमार नामक उस नौकरशाह की है जिसने प्रशासनिक सुख-सुविधाओं का लाभ उठाने तथा पदोन्नतियाँ ले-लेकर भारतीय पुलिस सेवा के (मलाईदार) उच्च पद पर पहुँचने के स्थान पर अपने जीवन को एक सार्थकता प्रदान करने का विकल्प चुना तथा अपना क्षेत्र परिवर्तित करके साधनहीन वर्ग से आने वाले बालकों को समुचित शिक्षा एवं उससे जुड़ी हुई स्वास्थ्य-संबंधी सुविधाएं मिलें, इसे सुनिश्चित करने के पावन लक्ष्य की ओर अपनी ऊर्जा को मोड़ दिया । उनका यह निर्णय अत्यंत साहसिक था, त्यागमय था, अभिनंदनीय था ।
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अपनी युवावस्था में मैं स्वयं भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाना चाहता था एवं श्रीमती किरण बेदी नामक वास्तविक व्यक्तित्व को तथा दशकों पूर्व दूरदर्शन पर प्रसारित हुए ‘उड़ान’ नामक धारावाहिक की काल्पनिक नायिका कल्याणी सिंह को अपना आदर्श मानकर परीक्षा की तैयारी करता था । लेकिन आज जब मैं भारतीय नौकरशाही के तौर-तरीकों एवं नज़रिये को बेहतर देख पा रहा हूँ तो कभी-कभी सोचता हूँ कि यदि मैं सचमुच ही प्रशासनिक सेवा में जाने के अपने लक्ष्य में सफल हो जाता तो क्या इस निहित स्वार्थों एवं अवरुद्ध-जल सरीखे दृष्टिकोण से आबद्ध इस भ्रष्ट, संवेदनहीन एवं निकम्मी व्यवस्था में मेरा दम नहीं घुट जाता ? ऐसे में जब इस फ़िल्म में मैंने प्रवीण कुमार को कालातीत ढंग से चलने वाली पाषाणी व्यवस्था से जूझकर भी अपने पावन लक्ष्य की ओर अग्रसर होते हुए देखा तो यह तथ्य मेरे हृदय को कहीं गहनता में जाकर स्पर्श कर गया एवं मेरा शीश इस दृढ़-संकल्पी व्यक्ति के आत्मविश्वास तथा इच्छाशक्ति के सम्मुख नत हो गया ।
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जैसा कि फ़िल्म में भी राहुल बोस ने निरूपण किया है – प्रवीण कुमार का पथ कंटकाकीर्ण ही रहा होगा, सत्य के पथिक को तो अपने पथ के पुष्पाच्छादित होने की अपेक्षा करनी भी नहीं चाहिए । अपने सफ़र की शुरूआत में वे लगभग अकेले ही थे लेकिन जैसा कि मजरूह सुल्तानपुरी साहब का कालजयी शेर है – ‘मैं अकेला ही चला था जानिब-ए-मंज़िल; लोग आते गए, कारवाँ बनता गया’ – उन्हें भी साथ देने वाले हमख़याल लोग मिल ही गए । ‘पूर्णा’ फ़िल्म की टैगलाइन है – ‘करेज हैज़ नो लिमिट’ (साहस की कोई सीमा नहीं होती है) । यह बात निर्धन एवं अशिक्षित परिवार से आने वाली आदिवासी बालिका पूर्णा मालावत के साथ-साथ प्रवीण कुमार पर भी लागू है । पूर्णा की अद्भुत सफलता प्रवीण कुमार की दीर्घ यात्रा का एक पड़ाव मात्र है, ऐसे न जाने कितने ही पड़ाव उनकी प्रतीक्षा कर रहे होंगे । प्रवीण कुमार ने संभवतः इन पंक्तियों को अपने जीवन में आत्मसात् कर लिया है – ‘क्या हार से क्या जीत से, किंचित नहीं भयभीत मैं; कर्तव्य-पथ पर जो मिले, ये भी सही, वो भी सही’ ।
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